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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


होरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव से देखकर कहा–यह लेकर मैं क्या करूँगा ठाकुर, यह भी तुम्हीं ले लो। मेरे लिए मजूरी बहुत मिलेगी।

झिंगुरी ने पचीसों रुपये जमीन पर फेंककर कहा–लो या फेंक दो, तुम्हारी खुशी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ खायीं और अभी राय साहब सिर पर सवार हैं कि डाँड़ के रुपये अदा करो। तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने रुपये दिये देता हूँ, नहीं एक धेला भी न देता। अगर राय साहब ने सख़्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे।

होरी ने धीरे से रुपये उठा लिये और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जाकर पचीसों रुपये उनके हाथ पर रख दिये, और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था। शोभा को इतने ही रुपये मिले थे। वह बाहर निकला, तो पटेश्वरी ने घेरा।

शोभा बदल पड़ा। बोला–मेरे पास रुपये नहीं हैं; तुम्हें जो कुछ करना हो, कर लो।

पटेश्वरी ने गर्म होकर कहा–ऊख बेची है कि नहीं?

‘हाँ, बेची है।’

‘तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेचकर रुपया दूँगा?’

‘हाँ, था तो।’

‘फिर क्यों नहीं देते! और सब लोगों को दिये हैं कि नहीं?’

‘हाँ, दिये हैं।’

‘तो मुझे क्यों नहीं देते?’

‘मेरे पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है।’

पटेश्वरी ने बिगड़कर कहा–तुम रुपये दोगे शोभा, और हाथ जोड़कर और आज ही। हाँ, अभी जितना चाहो, बहक लो। एक रपट में जाओगे छः महीने को, पूरे छः महीने को, न एक दिन बेस न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते हो, वह एक रपट में निकल जायगा। मैं जमींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और जमींदार दोनों का मालिक है।

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