उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
पटेश्वरी लाला आगे बढ़ गये। शोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तब होरी ने कहा–शोभा, इसके रुपये दे दो। समझ लो, ऊख में आग लग गयी थी। मैंने भी यही सोचकर, मन को समझाया है।
शोभा ने आहत कंठ से कहा–हाँ, दे दूँगा दादा! न दूँगा तो जाऊँगा कहाँ?
सामने से गिरधर ताड़ी पिये झूमता चला आ रहा था। दोनों को देखकर बोला–झिंगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चबैना को भी एक पैसा न छोड़ा। हत्यारा कहीं का। रोया गिड़गिड़ाया; पर इस पापी को दया न आयी।
शोभा ने कहा–ताड़ी तो पिये हुए हो, उस पर कहते हो, एक पैसा भी न छोड़ा! गिरधर ने पेट दिखाकर कहा–साँझ हो गयी, जो पानी की बूँद भी कंठ तले गयी हो, तो गो-मांस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा, साल-भर पसीना गारा है, तो एक दिन ताड़ी तो पी लूँ; मगर सच कहता हूँ, नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगा। हाँ, झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझें खूब पिये हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाकी हो गयी। बीस लिये, उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है!
होरी घर पहुँचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना चिलम भर लायी, धनिया ने चबेना और नमक लाकर रख दिया और सभी आशा भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुँह-हाथ धोये, कैसे चबेना खाये। ऐसा लज्जित और ग्लानित था, मानो हत्या करके आया हो।
धनिया ने पूछा–कितने की तौल हुई?
‘एक सौ बीस मिले; पर सब वहीं लुट गये, धेला भी न बचा।’
धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुँह नोच ले। बोली–तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान् ने क्यों रचा, कहीं मिलते तो उनसे पूछती तुम्हारे साथ सारी जिन्दगी तलख हो गयी, भगवान् मौत भी नहीं देते कि जंजाल से जान छूटे। उठाकर सारे रुपए बहनोईयों को दे दिये। अब और कौन आमदनी है, जिससे गोई आयेगी। हल में क्या मुझे जोतोगे, या आप जुतोगे? मैं कहती हूँ, तुम बूढ़े हुए, तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोईं-भर के रुपए तो निकाल लेते! कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की यह ठंड और किसी की देह पर लत्ता नहीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सिसक-सिसक कर मरने से तो एक दिन मर जाना फिर भी अच्छा है। कब तक पुआल में घुसकर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें, तो पुआल खाकर रहा तो न जायगा! तुम्हारी इच्छा हो घास ही खाओ, हमसे तो घास न खायी जायगी।
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