उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
होरी ने अपराधी की भाँति सिर झुका लिया; लेकिन धनिया यह अनीत कैसे देख सकती थी। बोली–बेटा, तुम भी अँधेर करते हो। हुक़्क़ा-पानी बन्द हो जाता, तो गाँव में निवार्ह होता! जवान लड़की बैठी है, उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है कि नहीं? मरने-जीने में आदमी बिरादरी...
गोबर ने बात काटी–हुक्का-पानी सब तो था, बिरादरी में आदर भी था, फिर मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ? बोलो। इसलिए कि घर में रोटी न थी। रुपए हों तो न हुक्का-पानी का काम है, न जात-बिरादरी का। दुनिया पैसे की है, हुक्का-पानी कोई नहीं पूछता।
धनिया तो बच्चे का रोना सुनकर भीतर चली गयी और गोबर भी घर से निकला। होरी बैठा सोच रहा था। लड़के की अकल जैसे खुल गयी है। कैसी बेलाग बात कहता है। उसकी वक्र बुद्धि ने होरी के धर्म और नीति को परास्त कर दिया था। सहसा होरी ने उससे पूछा–मैं भी चला चलूँ?
‘मैं लड़ाई करने नहीं जा रहा हूँ दादा, डरो मत। मेरी ओर कानून है, मैं क्यों लड़ाई करने लगा?’
‘मैं भी चलूँ तो कोई हरज है?’
‘हाँ, बड़ा हरज है। तुम बनी बात बिगाड़ दोगे।’
होरी चुप हो गया और गोबर चल दिया। पाँच मिनट भी न हुए होंगे कि धनिया बच्चे को लिए बाहर निकली और बोली–क्या गोबर चला गया, अकेले? मैं कहती हूँ, तुम्हें भगवान् कभी बुद्धि देंगे या नहीं। भोला क्या सहज में गोईं देगा? तीनों उस पर टूट पड़ेंगे, बाज की तरह। भगवान् ही कुशल करें। अब किससे कहूँ, दौड़कर गोबर को पकड़ ले। तुमसे तो मैं हार गयी।
होरी ने कोने से डंडा उठाया और गोबर के पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर आकर उसने निगाह दौड़ाई। एक क्षीण-सी रेखा क्षितिज से मिली हुई दिखाई दी। इतनी ही देर में गोबर इतनी दूर कैसे निकल गया! होरी की आत्मा उसे धिक्कारने लगी। उसने क्यों गोबर को रोका नहीं। अगर वह डाँटकर कह देता, भोला के घर मत जाओ तो गोबर कभी न जाता। और अब उससे दौड़ा भी तो नहीं जाता। वह हारकर वहीं बैठ गया और बोला–उसकी रक्षा करो महाबीर स्वामी!
गोबर उस गाँव में पहुँचा, तो देखा कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे जुआ खेल रहे हैं। उसे देखकर लोगों ने समझा, पुलीस का सिपाही है। कौड़ियाँ समेटकर भागे कि सहसा जंगी ने उसे पहचानकर कहा–अरे, यह तो गोबरधन है।
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