उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक्त उसका गला सचमुच भर आया। बोला–काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे क्षमा करो।
भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया और पथरीले स्वर में बोला–काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर, कि तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न लगे; लेकिन अपने द्वार पर आये हो, अब क्या कहूँ! जाओ, जैसा मेरे साथ किया उसकी सजा भगवान् देंगे। कब आये?
गोबर ने खूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का वृत्तान्त कहा, और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। भोला को जैसे बेमाँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगा, तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ दे, अपना बोझ तो उठा लेगा।
गोबर ने कहा–नहीं काका, भगवान् ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल दो साल में आदमी हो जायँगे।
‘हाँ, जब इनसे रहते बने।’
‘सिर पर आ पड़ती है, तो आदमी आप सँभल जाता है।’
‘तो कब तक जाने का विचार है?’
‘होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूँ, तो निश्चिन्त हो जाऊँ।’
‘होरी से कहो, अब बैठ के राम-राम करें।’
‘कहता तो हूँ, लेकिन जब उनसे बैठा जाय।’
‘वहाँ किसी बैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना।’
‘एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवाकर भेज दूँगा। खाँसी रात को जोर करती है कि दिन को?’
‘नहीं बेटा, रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल हो, तो मैं भी वहीं चलकर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता।’
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