उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
गोबर ने पूछा–तुम्हारे पास रसीद तो होगी?
‘रसीद कहाँ देते हैं?’
‘तो तुम बिना रसीद लिए रुपए देते ही क्यों हो?’
‘मैं क्या जानता था, वह लोग बेईमानी करेंगे। यह सब तुम्हारी करनी का फल है। तुमने रात को उनकी हँसी उड़ाई, यह उसी का दंड है। पानी में रह कर मगर से बैर नहीं किया जाता। सूद लगाकर सत्तर रुपए बाकी निकाल दिये। ये किसके घर से आयेंगे?’
गोबर ने अपनी सफाई देते हुए कहा–तुमने रसीद ले ली होती तो मैं लाख उनकी हँसी उड़ाता, तुम्हारा बाल भी बाँका न कर सकते। मेरी समझ में नहीं आता कि लेन-देन में तुम सावधानी से क्यों काम नहीं लेते। यों रसीद नहीं देते, तो डाक से रुपया भेजो। यही तो होगा, एकाध रुपया महसूल पड़ जायगा। इस तरह की धाँधली तो न होगी।
‘तुमने यह आग न लगाई होती, तो कुछ न होता। अब तो सभी मुखिया बिगड़े हुए हैं। बेदखली की धमकी दे रहे हैं, दैव जाने कैसे बेड़ा पार लगेगा!’
‘मैं जाकर उनसे पूछता हूँ।’
‘तुम जाकर और आग लगा दोगे।’
‘अगर आग लगानी पड़ेगी, तो आग भी लगा दूँगा। वह बेदखली करते हैं, करें। मैं उनके हाथ में गंगाजली रखकर अदालत में कसम खिलाऊँगा। तुम दुम दबाकर बैठे रहो। मैं इसके पीछे जान लड़ा दूँगा। मैं किसी का एक पैसा दबाना नहीं चाहता, न अपना एक पैसा खोना चाहता हूँ।’
वह उसी वक्त उठा और नोखेराम की चौपाल में जा पहुँचा। देखा तो सभी मुखिया लोगों का कैबिनेट बैठा हुआ है। गोबर को देखकर सब के सब सतर्क हो गये। वातावरण में षड्यन्त्र की-सी कुंठा भरी हुई थी।
गोबर ने उत्तेजित कंठ से पूछा–यह क्या बात है कारिन्दा साहब, कि आपको दादा ने हाल तक का लगान चुकता कर दिया और आप अभी दो साल की बाकी निकाल रहे हैं। यह कैसा गोलमाल है?
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