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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


राय साहब का मुँह गिर गया। खन्ना उनके अन्तरंग मित्रों में थे। साथ के पढ़े हुए, साथ के बैठनेवाले। और यह उनसे कमीशन की आशा रखते हैं, इतने बेमुरव्वती? आखिर वह जो इतने दिनों से खन्ना की खुशामद करते हैं, वह किस दिन के लिए? बाग में फल निकले, शाक-भाजी पैदा हो, सब से पहले खन्ना के पास डाली भेजते हैं। कोई उत्सव हो, कोई जलसा हो, सबसे पहले खन्ना को निमन्त्रण देते हैं। उसका यह जवाब हो। उदास मन से बोले–आपकी जो इच्छा हो; लेकिन मैं आपको अपना भाई समझता था।

खन्ना ने कृतज्ञता के भाव से कहा–यह आपकी कृपा है। मैंने भी सदैव आपको अपना बड़ा भाई समझा है और अब भी समझता हूँ। कभी आपसे कोई पर्दा नहीं रखा, लेकिन व्यापार एक दूसरा क्षेत्र है। यहाँ कोई किसी का दोस्त नहीं, कोई किसी का भाई नहीं। जिस तरह मैं भाई के नाते आपसे यह नहीं कह सकता कि मुझे दूसरों से ज्यादा कमीशन दीजिए, उसी तरह आपको भी मेरे कमीशन में रियायत के लिए आग्रह न करना चाहिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, कि मैं जितनी रिआयत आप के साथ कर सकता हूँ, उतना करूँगा। कल आप दफ़्तर के वक्त आयें और लिखा-पढ़ी कर लें। बस, बिजनेस खत्म। आपने कुछ और सुना! मेहता साहब आजकल मालती पर बे-तरह रीझे हुए हैं। सारी फिलासफी निकल गयी। दिन में एक-दो बार जरूर हाजिरी दे आते हैं, और शाम को अक्सर दोनों साथ-साथ सैर करने निकलते हैं। यह तो मेरी ही शान थी कि कभी मालती के द्वार पर सलामी करने न गया। शायद अब उसी की कसर निकाल रही है। कहाँ तो यह हाल था कि जो कुछ हैं, मिस्टर खन्ना हैं। कोई काम होता, तो खन्ना के पास दौड़ी आती। जब रुपयों की जरूरत पड़ती तो खन्ना के नाम पुरजा आता। और कहाँ अब मुझे देखकर मुँह फेर लेती हैं। मैंने खास उन्हीं के लिए फ़्रांस से एक घड़ी मँगवाई थी। बड़े शौक से लेकर गया; मगर नहीं ली। अभी कल मेवों की डाली भेजी थी–काश्मीर से मँगवाये थे–वापस कर दी। मुझे तो आश्चर्य होता है कि आदमी इतनी जल्द कैसे इतना बदल जाता है।

राय साहब मन में तो उनकी बेकद्री पर खुश हुए; पर सहानुभूति दिखाकर बोले–अगर यह भी मान लें कि मेहता से उसका प्रेम हो गया है, तो भी व्यवहार तोड़ने का कोई कारण नहीं है।

खन्ना व्यथित स्वर में बोले–यही तो रंज है भाई साहब! यह तो मैं शुरू से जानता था वह मेरे हाथ नहीं आ सकती! मैं आप से सत्य कहता हूँ, मैं कभी इस धोखे में नहीं पड़ा कि मालती को मुझसे प्रेम है। प्रेम-जैसी चीज उनसे मिल सकती है, इसकी मैंने कभी आशा ही नहीं की। मैं तो केवल उनके रूप का पुजारी था। साँप में विष है, यह जानते हुए भी हम उसे दूध पिलाते हैं। तोते से ज्यादा निठुर जीव और कौन होगा; लेकिन केवल उसके रूप और वाणी पर मुग्ध होकर लोग उसे पालते हैं और सोने के पिंजरे में रखते हैं। मेरे लिए भी मालती उसी तोते के समान थी। अफसोस यही है कि मैं पहले क्यों न चेत गया। इसके पीछे मैंने अपने हजारों रुपए बरबाद कर दिये भाई साहब! जब उसका रुक्का पहुँचा, मैंने तुरन्त रुपए भेजे। मेरी कार आज भी उसकी सवारी में है। उसके पीछे मैंने अपना घर चौपट कर दिया भाई साहब! हृदय में जितना रस था, वह ऊसर की ओर इतने वेग से दौड़ा कि दूसरी तरफ का उद्यान बिलकुल सूखा रह गया। बरसों हो गये, मैंने गोविन्दी से दिल खोलकर बात भी नहीं की। उसकी सेवा और स्नेह और त्याग से मुझे उसी तरह अरुचि हो गयी थी, जैसे अजीर्ण के रोगी को मोहनभोग से हो जाती है। मालती मुझे उसी तरह नचाती थी, जैसे मदारी बन्दर को नचाता है। और मैं खुशी से नाचता था। वह मेरा अपमान करती थी और मैं खुशी से हँसता था। वह मुझ पर शासन करती थी और मैं सिर झुकाता था। उसने मुझे कभी मुँह नहीं लगाया, यह मैं स्वीकार करता हूँ। उसने मुझे कभी प्रोत्साहन नहीं दिया, यह भी सत्य है, फिर भी मैं पतंग की भाँति उसके मुख-दीप पर प्राण देता था। और अब वह मुझसे शिष्टाचार का व्यवहार भी नहीं कर सकती! लेकिन भाई साहब! मैं कहे देता हूँ कि खन्ना चुप बैठनेवाला आदमी नहीं है। उसके पुरजे मेरे पास सुरिक्षत हैं; मैं उससे एक-एक पाई वसूल कर लूँगा, और डाक्टर मेहता को तो मैं लखनऊ से निकालकर दम लूँगा। उनका रहना यहाँ असम्भव कर दूँगा...

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