उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
54 पाठक हैं |
‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
मथुरा ने भंडारे की कुंजी उठा ली थी कि सिलिया के जलपान के लिए कुछ निकाल लाये; कर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा था। इधर सिल्लो की साँस टँगी हुई थी, मानो सिर पर तलवार लटक रही हो।
सोना की दृष्टि में सबसे बड़ा पाप किसी पुरुष का पर-स्त्री और स्त्री का पर-पुरुष की ओर ताकना था। इस अपराध के लिए उसके यहाँ कोई क्षमा न थी। चोरी, हत्या, जाल, कोई अपराध इतना भीषण न था। हँसी-दिल्लगी को वह बुरा न समझती थी, अगर खुले हुए रूप में हो, लुके-छिपे की हँसी-दिल्लगी को भी वह हेय समझती थी। छुटपन से ही वह बहुत-सी रीति की बातें जानने और समझने लगी थी। होरी को जब कभी हाट से घर आने में देर हो जाती थी और धनिया को पता लग जाता था कि वह दुलारी सहुआइन की दूकान पर गया था, चाहे तम्बाखू लेने ही क्यों न गया हो, तो वह कई-कई दिन तक होरी से बोलती न थी और न घर का काम करती थी। एक बार इसी बात पर वह अपने नैहर भाग गयी थी। यह भावना सोना में और तीव्र हो गयी थी। जब तक उसका विवाह न हुआ था, यह भावना उतनी बलवान न थी, पर विवाह हो जाने के बाद तो उसने व्रत का रूप धारण कर लिया था। ऐसे स्त्री-पुरुषों की अगर खाल भी खींच ली जाती, तो उसे दया न आती। प्रेम के लिए दाम्पत्य के बाहर उसकी दृष्टि में कोई स्थान न था। स्त्री-पुरुष का एक दूसरे के साथ जो कर्तव्य है, इसी को वह प्रेम समझती थी। फिर सिल्लो से उसका बहन का नाता था। सिल्लो को वह प्यार करती थी, उस पर विश्वास करती थी। वही सिल्लो आज उससे विश्वासघात कर रही है। मथुरा और सिल्लो में अवश्य ही पहले से साँठ-गाँठ होगी। मथुरा उससे नदी के किनारे या खेतों में मिलता होगा। और आज वह इतनी रात गये नदी पार करके इसीलिए आयी है। अगर उसने इन दोनों की बातें सुन न ली होतीं, तो उसे खबर तक न होती। मथुरा ने प्रेम-मिलन के लिए यही अवसर सबसे अच्छा समझा होगा। घर में सन्नाटा जो है। उसका हृदय सब कुछ जानने के लिए विकल हो रहा था। वह सारा रहस्य जान लेना चाहती थी, जिसमें अपनी रक्षा के लिए कोई विधान सोच सके। और यह मथुरा यहाँ क्यों खड़ा है? क्यों वह उसे कुछ बोलने भी न देगा?
उसने रोष से कहा–तुम बाहर क्यों नहीं जाते, या यहीं पहरा देते रहोगे? मथुरा बिना कुछ कहे बाहर चला गया। उसके प्राण सूखे जाते थे कि कहीं सिल्लो सब कुछ कह न डाले। और सिल्लो के प्राण सूखे जाते थे कि अब वह लटकती हुई तलवार सिर पर गिरना चाहती है। तब सोना ने बड़े गम्भीर स्वर में सिल्लो से पूछा–देखो सिल्लो, मुझसे साफ-साफ बता दो, नहीं मैं तुम्हारे सामने, यहीं, अपनी गर्दन पर गँड़ासा मार लूँगी। फिर तुम मेरी सौत बन कर राज करना। देखो, गँड़ासा वह सामने पड़ा है। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। उसने लपककर सामने आँगन में से गँड़ासा उठा लिया और उसे हाथ में लिये, फिर बोली–यह मत समझना कि मैं खाली धमकी दे रही हूँ। क्रोध में मैं क्या कर बैठूँ, नहीं कह सकती। साफ-साफ बता दे। सिलिया काँप उठी। एक-एक शब्द उसके मुँह से निकल पड़ा, मानो ग्रामोफोन में भरी हुई आवाज हो। वह एक शब्द भी न छिपा सकी, सोना के चेहरे पर भीषण संकल्प खेल रहा था, मानो खून सवार हो। सोना ने उसकी ओर बरछी की-सी चुभनेवाली आँखों से देखा और मानो कटार का आघात करती हुई बोली–ठीक-ठीक कहती हो?
|