उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
‘बिलकुल ठीक। अपनी बच्चे की कसम।’
‘कुछ छिपाया तो नहीं?’
‘अगर मैंने रत्ती-भर छिपाया हो तो मेरी आँखें फूट जायँ।’
‘तुमने उस पापी को लात क्यों नहीं मारी? उसे दाँत क्यों नहीं काट लिया? उसका खून क्यों नहीं पी लिया, चिल्लायी क्यों नहीं?’
सिल्लो क्या जवाब दे! सोना ने उन्मादिनी की भाँति अँगारे की-सी आँखें निकालकर कहा–बोलती क्यों नहीं? क्यों तूने उसकी नाक दाँतों से नहीं काट ली? क्यों नहीं दोनों हाथों से उसका गला दबा दिया। तब मैं तेरे चरणों पर सिर झुकाती। अब तो तुम मेरी आँखों में हरजाई हो, निरी बेसवा; अगर यही करना था, तो मातादीन का नाम क्यों कलंकित कर रही है; क्यों किसी को लेकर बैठ नहीं जाती; क्यों अपने घर नहीं चली गयी? यही तो तेरे घरवाले चाहते थे। तू उपले और घास लेकर बाजार जाती, वहाँ से रुपए लाती और तेरा बाप बैठा, उसी रुपए की ताड़ी पीता, फिर क्यों उस ब्राह्मण का अपमान कराया? क्यों उसकी आबरू में बट्टा लगाया? क्यों सतवन्ती बनी बैठी हो? जब अकेले नहीं रहा जाता, तो किसी से सगाई क्यों नहीं कर लेती; क्यों नदी-तालाब में डूब नहीं मरती? क्यों दूसरों के जीवन में विष घोलती है? आज मैं तुझसे कह देती हूँ कि अगर इस तरह की बात फिर हुई और मुझे पता लगा, तो हम तीनों में से एक भी जीते न रहेंगे। बस, अब मुँह में कालिख लगाकर जाओ। आज से मेरे और तुम्हारे बीच में कोई नाता नहीं रहा। सिल्लो धीरे से उठी और सँभलकर खड़ी हुई। जान पड़ा, उसकी कमर टूट गयी है। एक क्षण साहस बटोरती रही, किन्तु अपनी सफाई में कुछ सूझ न पड़ा। आँखों के सामने अँधेरा था, सिर में चक्कर, कंठ सूख रहा था। और सारी देह सुन्न हो गयी थी, मानो रोम-छिद्रों से प्राण उड़े जा रहे हों। एक-एक पग इस तरह रखती हुई, मानो सामने गड्ढा है, वह बाहर आयी और नदी की ओर चली।
द्वार पर मथुरा खड़ा था। बोला–इस वक्त कहाँ जाती हो सिल्लो?
सिल्लो ने कोई जवाब न दिया। मथुरा ने भी फिर कुछ न पूछा।
वही रुपहली चाँदनी अब भी छाई हुई थी। नदी की लहरें अब भी चाँद की किरणों में नहा रही थीं। और सिल्लो विक्षिप्त-सी स्वप्न-छाया की भाँति नदी में चली जा रही थी।
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मिल करीब-करीब पूरी जल चुकी है; लेकिन उसी मिल को फिर से खड़ा करना होगा। मिस्टर खन्ना ने अपनी सारी कोशिशें इसके लिए लगा दी हैं। मजदूरों की हड़ताल जारी है; मगर अब उससे मिल मालिकों की कोई विशेष हानि नहीं है। नये आदमी कम वेतन पर मिल गये हैं और जी तोड़ कर काम करते हैं; क्योंकि उनमें सभी ऐसे हैं, जिन्होंने बेकारी के कष्ट भोग लिये हैं और अब अपना बस चलते ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते जिससे उनकी जीविका में बाधा पड़े। चाहे जितना काम लो, चाहे जितनी कम छुट्टियाँ दो, उन्हें कोई शिकायत नहीं। सिर झुकाये बैलों की तरह काम में लगे रहते हैं। घुड़कियाँ, गालियाँ, यहाँ तक कि डंडों की मार भी उनमें ग्लानि नहीं पैदा करती; और अब पुराने मजदूरों के लिए इसके सिवा कोई मार्ग नहीं रह गया है कि वह इसी घटी हुई मजूरी पर काम करने आयें और खन्ना साहब की खुशामद करें। पण्डित ओंकारनाथ पर तो उन्हें अब रत्ती-भर भी विश्वास नहीं है। उन्हें वे अकेले-दुकेले पायें तो शायद उनकी बुरी गत बनाये; पर पण्डितजी बहुत बचे हुए रहते हैं। चिराग जलने के बाद अपने कायार्लय से बाहर नहीं निकलते और अफसरों की खुशामद करने लगे हैं। मिर्ज़ा खुर्शेद की धाक अब भी ज्यों-की-त्यों है; लेकिन मिर्ज़ाजी इन बेचारों का कष्ट और उसके निवारण का अपने पास कोई उपाय न देखकर दिल से चाहते हैं कि सब-के-सब बहाल हो जायँ; मगर इसके साथ ही नये आदमियों के कष्ट का ख़्याल करके जिज्ञासुओं से यही कह दिया करते हैं कि जैसी इच्छा हो वैसा करो। मिस्टर खन्ना ने पुराने आदमियों को फिर नौकरी के लिए इच्छुक देखा, तो और भी अकड़ गये, हलाँकि वह मन में चाहते थे कि इस वेतन पर पुराने आदमी नयों से कहीं अच्छे हैं। नये आदमी अपना सारा जोर लगाकर भी पुराने आदमियों के बराबर काम न कर सकते थे। पुराने आदमियों में अधिकांश तो बचपन से ही मिल में काम करने के अभ्यस्त थे और खूब मँजे हुए। नये आदमियों में अधिकतर देहातों के दुखी किसान थे, जिन्हें खुली हवा और मैदान में पुराने जमाने के लकड़ी के औजारों से काम करने की आदत थी। मिल के अन्दर उनका दम घुटता था और मशीनरी के तेज चलनेवाले पुरज़ों से उन्हें भय लगता था।
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