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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


फूलमती और भी प्रचंड होकर बोली–तुम लोगों को क्या! किसी को शर्म-हया तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी घर की मरजाद बनाने में खराब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यों कलंकित किया? शहर में थुड़ी-थुड़ी हो रही है। अब कोई तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने तो आएगा नहीं!

कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुँझला कर बोला–अच्छा, अब चुप रहो अम्माँ। भूल हुई, हम सब मानते हैं, बड़ी भंयकर भूल हुई; लेकिन अब क्या उसके लिए घर के प्राणियों को हलाल कर डालोगी? सभी से भूलें होती हैं। आदमी पछता कर रह जाता है। किसी की जान तो नहीं मारी जाती?

बड़ी बहू ने अपनी सफ़ाई दी–हम क्या जानते थे कि बीबी (कुमुद) से इतना-सा काम भी न होगा। इन्हें चाहिए था कि देख कर तरकारी कढ़ाव में डालतीं। टोकरी उठाकर कढ़ाव में डाल दी! हमारा क्या दोष!

कामतानाथ ने पत्नी को डाँटा–इसमें न कुमुद का क़सूर है, न तुम्हारा, न मेरा। संयोग की बात है। बदनामी भाग में लिखी थी, वह हुई। इतने बड़े भोज में एक-एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में नहीं डाली जाती! टोकरे के टोकरे उँड़ेल दिये जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दुर्घटना भी हो ही जाती है। पर इसमें कैसी जग-हँसाई और कैसी नक-कटाई। तुम ख़ामख़ाह जले पर नमक छिड़कती हो।

फूलमती ने दाँत पीस कर कहा–शरमाते तो नहीं, उलटे और बेहयाई की बातें करते हो।

कामतानाथ ने निःसंकोच हो कर कहा–शरमाऊँ क्यों, किसी की चोरी की हैं? चीनी में चींटे और आटे में घुन, यह नहीं देखे जाते। पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यही बात बिगड़ गयी। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते। किसी को खबर भी न होती।

फूलमती ने चकित होकर कहा–क्या कहता है, मरी चुहिया खिला कर सबका धर्म बिगाड़ देता?

कामता हँसकर बोला–क्या पुराने ज़माने की बातें करती हो अम्माँ। इन बातों से धर्म नहीं जाता। यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गये हैं, इसमें ऐसा कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस न खाता हो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो किसी से बचते नहीं। ज़रा-सी चुहिया में क्या रखा था!

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