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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


इस तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ लिया। सकुचाता हुआ बोला–हाँ, यदि ऐसा हुआ तो बेशक मुझे रुपये की जरूरत होगी।

‘क्या ऐसा होना असम्भव है?’

‘असम्भव तो मैं नहीं समझता; लेकिन कठिन अवश्य है। वज़ीफे उन्हें मिलते हैं, जिनके पास सिफ़ारिशें होती हैं, मुझे कौन पूछता है।’

‘कभी-कभी सिफ़ारिशें धरी रह जाती हैं और बिना सिफ़ारिश वाले बाजी मार ले जाते हैं?’

‘तो आप जैसा उचित समझें। मुझे यहाँ तक मंजूर है कि चाहे मैं विलायत न जाऊँ; पर कुमुद अच्छे घर जाय।’

कामतानाथ ने निष्ठा–भाव से कहा–अच्छा घर दहेज देने ही से नहीं मिलता भैया! जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा, यह नसीबों का खेल है। मैं तो चाहता हूँ कि मुरारीलाल को जवाब दे दिया जाय और कोई ऐसा घर खोजा जाय, जो थोड़े में राजी हो जाय। इस विवाह में मैं एक हज़ार से ज्यादा नहीं खर्च कर सकता। पंडित दीनदयाल कैसे हैं?

उमा ने प्रसन्न होकर कहा–बहुत अच्छे। एम० ए०, बी० ए० न सही, यजमानों से अच्छी आमदनी है।

दयानाथ ने आपत्ति की–अम्माँ से भी तो पूछ लेना चाहिए।

कामतानाथ को इसकी कोई ज़रूरत न मालूम हुई। बोले–उनकी तो जैसे बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी। वही पुराने युग की बातें! मुरारीलाल के नाम पर उधार खाय बैठी हैं। यह नहीं समझतीं कि वह जमाना नहीं रहा। उनको तो बस कुमुद मुरारी पंडित के घर जाय, चाहे हम लोग तबाह हो जायँ।

उमा ने एक शंका उपस्थित की–अम्माँ अपने सब गहने कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा।

कामता का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका। बोले–गहनों पर उनका पूरा अधिकार है। यह उनका स्त्री-धन है। जिसे चाहें, दे सकती हैं।

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