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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


उमा ने सिर खुजलाते हुए कहा–समाचार-पत्रों में लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है अम्माँ। कितना ही बच कर लिखो, लेकिन कहीं-कहीं पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पाँच हज़ार की जमानत माँगी गयी है। अगर कल तक जमा न कर दी गयी, तो गिरफ्तार हो जायँगे और दस साल की सज़ा ठुक जायगी।

फूलमती ने सिर पीट कर कहा–तो ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीं हो, आजकल हमारे अदिन आये हुए हैं। जमानत किसी तरह टल नहीं सकती?

दयानाथ ने अपराधी–भाव से उत्तर दिया–मैंने तो अम्माँ ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी, लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम जिला इतना कड़ा है कि ज़रा भी रियायत नहीं करता। मैंने जितनी दौंड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।

‘तो तुमने कामता से रुपये का प्रबन्ध करने को नहीं कहा?’

उमा ने मुँह बनाया–उनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्माँ, उन्हें रुपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाय, वह एक पाई न देंगे।

दयानाथ ने समर्थन किया–मैंने तो उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।

फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा–चलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं? रुपये इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़ कर रखने के लिए?

उमानाथ ने माता को रोककर कहा–नहीं अम्माँ, उनसे कुछ न कहो। रुपये तो न देंगे, उलटे और हाय-हाय मचायेंगे। उनको अपनी नौकरी की ख़ैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चर्य नहीं।

फूलमती ने लाचार होकर कहा–तो फिर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं है। हाँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं गिरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।

दयानाथ कानों पर हाथ रख कर बोला–यह तो नहीं हो सकता अम्माँ कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-पाँच साल की क़ैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ।

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