कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह) ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…
इस रेखा पर वह लम्ब गिरा दो, तो आधार लम्बे से दुगुना होगा। पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगना नही, चौगुना हो जाय, या आधा ही रहे, मेरी बला से; लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफ़ात याद करनी पड़ेगी। कह दिया–‘समय की पाबन्दी’ पर एक निबन्धन लिखो, जो चार पन्नोी से कम न हो। अब आप कापी सामने खोले, क़लम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए। कौन नहीं जानता कि समय की पाबन्दीी बहुत अच्छीग बात है। इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरों का उस पर स्नेचह होने लगता है और उसके करोबार में उन्न ति होती है; लेकिन ज़रा सी बात पर चार पन्नेि कैसे लिखें? जो बात एक वाक्या में कही जा सके, उसे चार पन्ने़ में लिखने की जरूरत? मैं तो इसे हिमाक़त समझता हूँ। यह तो समय की किफ़ायत नही, बल्किस उसका दुरूपयोग है कि व्यार्थ में किसी बात को ठूँस दिया। हम चाहते है, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नही, आपको चार पन्नेह रँगने पड़ेंगे, चाहे जैसे लिखिए और पन्ने भी पूरे फुलस्केप के आकार के। यह छात्रो पर अत्या चार नहीं तो और क्याक है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबन्दी पर संक्षेप में एक निबन्धत लिखो, जो चार पन्नोष से कम न हो। ठीक! संक्षेप में चार पन्ने हुए, नहीं शायद सौ-दो सौ पन्नेा लिखवाते। तेज़ भी दौड़िए और धीरे-धीरे भी। है उलटी बात या नहीं? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है, लेकिन इन अध्याीपकों को इतनी तमीज भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्यालपक है। मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दरजे में अव्वोल आ गये हो, वो ज़मीन पर पाँव नहीं रखते। इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे ज्याएदा अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ, उसे गिरह बाँधिए, नहीं पछताइयेगा।
स्कूेल का समय निकट था, नहीं ईश्वार जाने यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन मुझे निस्वाब द-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्काुर हो रहा है, तो फ़ेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जायँ। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था, उसने मुझे भयभीत कर दिया। कैसे स्कूईल छोड़ कर घर नहीं भागा, यही ताज्जु ब है, लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्तरकों में मेरी अरुचि ज्योव कि त्यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी था, मगर बहुत कम। बस इतना कि रोज़ का टास्कक पूरा हो जाय और दरजे में ज़लील न होना पड़ें। अपने ऊपर जो विश्वाजस पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त हो गया और फिर चोरो का-सा जीवन कटने लगा।
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