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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


 

शान्ति

स्व्र्गीय देवनाथ मेरे अभिन्न  मित्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती है, तो वह रँगरेलियाँ आँखों में फिर जाती हैं, और कहीं एकान्त में जाकर ज़रा देर रो लेता हूँ। हमारे बीच में दो-ढाई सौ मील का अन्तर था। मैं लखनऊ में था, वह दिल्लीो में; लेकिन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो कि हम आपस में न मिल पाते हों। वह स्व च्छंन्दक प्रकति के विनोदप्रिय, सहृदय, उदार और मित्रों पर प्राण देनेवाले आदमी थे; जिन्होंिने अपने और पराये में कभी भेद नहीं किया। संसार क्याप है और यहाँ लौकिक व्यजवहार का कैसा निर्वाह होता है, यह उस व्येक्ति ने कभी न जानने की चेष्टा  की। उनके जीवन में ऐसे कई अवसर आये, जब उन्हेंक आगे के लिए होशियार हो जाना चाहिए था,
मित्रों ने उनकी निष्क पटता से अनुचित लाभ उठाया, और कई बार उन्हें  लज्जित भी होना पड़ा; लेकिन उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक़ लेने की क़सम खा ली थी। उनके व्यावहार ज्योंस के त्यों  रहे–‘जैसे भोलानाथ जिये, वैसे ही भोलानाथ मरे, जिस दुनिया में वह रहते थे वह निराली दुनिया थी, जिसमें संदेह, चालाकी और कपट के लिए स्था न न था–सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार-बार उन्हेंल सचेत करना चाहा; पर इसका परिणाम आशा के विरुद्ध हुआ। जीवन के स्वप्नों को भंग करते उन्हें हार्दिक वेदना होती थी।  मुझे कभी-कभी चिंता होती थी कि उन्होंकने इसे बन्द न किया, तो नतीजा क्या  होगा? लेकिन विडम्बना यह थी कि उनकी स्त्री  गोपा भी कुछ उसी सांचे में ढली हुई थी। हमारी देवियों में जो एक चातुरी होती है, जो सदैव ऐसे उड़ाऊ पुरुषों की असावधानियों पर ‘ब्रेक का काम करती है, उससे वह वंचित थी। यहाँ तक कि वस्त्राअभूषण में भी उसे विशेष रुचि न थी। अतएव जब मुझे देवनाथ के स्व र्गारोहण का समाचार मिला और मैं भागा हुआ दिल्लीअ गया, तो घर में बरतन भाँडे और मकान के सिवा और कोई संपति न थी। और अभी उनकी उम्र ही क्याव थी, जो संचय की चिन्ता करते। चालीस भी तो पूरे न हुए थे। यों तो लड़कपन उनके स्वनभाव में ही था; लेकिन इस उम्र में प्रायः सभी लोग कुछ बेफ्रिक रहते हैं। पहले एक लड़की हुई थी, इसके बाद दो लड़के हुए। दोनों लड़के तो बचपन में ही दगा दे गये थे। लड़की बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करुण दृश्य  था। जिस तरह का इनका जीवन था उसके देखते इस छोटे से परिवार के लिए दो सौ रुपये महीने की जरूरत थी। दो-तीन साल में लड़की का विवाह भी करना होगा। कैसे क्याे होगा, मेरी बुद्धि कुछ काम न करती थी।

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