कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह) ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…
गोपा ने मुझे तिरस्कातर भरी आँखों से देखा; पर उस तिरस्कातर की आड़ में घनिष्ठ आत्मीनयता बैठी झाँक रही थी। मुझे ऐसा जान पड़ा, उसके मुख की झुर्रियाँ मिट गयी हैं। पीछे मुख पर हलकी-सी लाली दौड़ गई। उसने कहा–इसका फल यह होगा कि तुम्हायरी देवीजी तुम्हेंय कभी यहाँ न आने देंगी।
‘मैं किसी का गुलाम नहीं हूँ।’
‘किसी को अपना गुलाम बनाने के लिए पहले खुद भी उसका गुलाम बनना पढ़ता है।’
शीतकाल की संध्या देखते-ही-देखते दीपक जलाने लगी। सुन्नीै लालटेन लेकर कमरे में आयी। दो साल पहले की अबोध और कृशतनु बालिका रूपवती युवती हो गयी थी, जिसकी हर एक चितवन, हर एक बात, उसकी गौरवशील प्रकति का पता दे रही थी। जिसे मैं गोद में उठाकर प्याीर करता था, उसकी तरफ़ आज आँखें न उठा सका और वह जो मेरे गले से लिपट कर प्रसन्नल होती थी, आज मेरे सामने खड़ी भी न रह सकी। जैसे मुझसे कोई वस्तुप छिपाना चाहती है, और जैसे मैं उस वस्तुी को छिपाने का अवसर दे रहा हूँ।
मैंने पूछा–अब तुम किस दरजे में पहुँची सुन्नीत?
उसने सिर झुकाये हुए जवाब दिया–दसवें में हूँ।
‘घर का भी कुछ काम-काज करती हो।’
‘अम्माँ जब करने भी दें।’
गोपा बोली–मैं नहीं करने देती या खुद किसी काम के नगीच नहीं जातीं?
सुन्नीो मुँह फेर कर हँसती हुई चली गयी। माँ की दुलारी लड़की थी। जिस दिन वह गृहस्थीी का काम करती, उस दिन शायद गोपा रो-रो कर आँखें फोड़ लेती। वह खुद लड़की को कोई काम न करने देती थी, मगर सबसे शिकायत करती थी कि वह कोई काम नहीं करती। यह शिकायत भी उसके प्या,र का ही एक करिश्मा था। हमारी मर्यादा हमारे बाद भी जीवित रहती है।
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