कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह) ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…
मैंने करूण स्वंर में पूछा–क्यान तुम बीमार थीं, गोपा?
गोपा ने आँसू पी कर कहा–नहीं तो, मुझे कभी सिर दर्द भी नहीं हुआ।
‘तो तुम्हा री यह क्याक दशा है? बिल्कुभल बूढ़ी हो गयी हो।’
‘तो अब जवानी लेकर करना ही क्याब है? मेरी उम्र भी तो पैंतीस के ऊपर हो गयी?’
‘पैंतीस की उम्र तो बहुत नहीं होती।’
‘हाँ, उनके लिए, जो बहुत दिन जीना चाहते है। मैं तो चाहती हूँ जितनी जल्दद हो सके, जीवन का अन्त हो जाय। बस सुन्नी के ब्यातह की चिन्ता है। इससे छुटटी पाऊँ; फिर मुझे ज़िन्दतगी की परवाह न रहेगी।’
अब मालूम हुआ कि जो सज्जेन इस मकान में किराएदार हुए थे, वह थोड़े दिनों के बाद तबदील होकर चले गये और तब से कोई दूसरा किरायदार न आया। मेरे हृदय में बरछी सी चुभ गयी। इतने दिनों इन बेचारों का निर्वाह कैसे हुआ, यह कल्पेना ही दुःखद थी।
मैंने विरक्तय मन से कहा–लेकिन तुमने मुझे सूचना क्यों। न दी? क्याु मैं बिलकुल ग़ैर हूँ?
गोपा ने लज्जित होकर कहा–नहीं नहीं, यह बात नहीं है। तुम्हेंे ग़ैर समझूँगी तो अपना किसे समझूँगी? मैंने समझा परदेश में तुम खुद अपने झमेले में पड़े होगे, तुम्हेंर क्यों सताऊँ? किसी न किसी तरह दिन कट ही गये। घर में और कुछ न था तो थोड़े–से गहने तो थे ही। अब सुनीता के विवाह की चिन्ता है। पहले मैंने सोचा था, इस मकान को निकाल दूँगी, बीस-बाइस हज़ार मिल जायेगे। विवाह भी हो जायगा और कुछ मेरे लिए बचा भी रहेगा; लेकिन बाद को मालूम हुआ कि मकान पहले ही रेहन हो चुका है और सूद मिलाकर उस पर बीस हज़ार हो गये हैं। महाजन ने इतनी ही दया क्याह कम की कि मुझे घर से निकाल न दिया। इधर से तो अब कोई आशा नहीं है। बहुत हाथ-पाँव जोड़ने पर, संभव है, महाजन से दो-ढाई हज़ार मिल जायँ। इतने में क्याु होगा? इसी फिक्र में घुली जा रही हूँ। लेकिन, मैं भी इतनी मतलबी हूँ, न तुम्हेंा हाथ-मुँह धोने को पानी दिया, न कुछ जलपान लायी और अपना दुखड़ा ले बैठी। अब आप कपड़े उतारिए और आराम से बैठिए। कुछ खाने को लाऊँ, खा लीजिए, तब बातें हों। घर पर तो सब कुशल है?
मैंने कहा–मैं तो सीधे बम्ब ई से यहाँ आ रहा हूँ। घर कहाँ गया?
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