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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


जाड़ों में मैं फिर दिल्ली  गया। मैंने समझा था कि अब गोपा सुखी होगी। लड़की का घर और वर दोनों आदर्श हैं। गोपा को इसके सिवा और क्याझ चाहिए; लेकिन सुख उसके भाग्य  में ही न था।

अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि उसने अपना दुखड़ा शुरू कर दिया–भैया, घर द्वार सब अच्छाी है, सास ससुर भी अच्छेु हैं, लेकिन जमाई निकम्माा निकला। सुन्नी‍ बेचारी रो-रोकर दिन काट रही है। तुम उसे देखो, तो पहचान न सको। उसकी परछाई मात्र रह गयी है। अभी कई दिन हुए, आयी हुई थी, उसकी दशा देखकर छाती फटती थी। जैसे जीवन में अपना पथ खो बैठी हो। न तन बदन की सुध है, न कपड़े-लते की। मेरी सुन्नीन की दुर्गत होगी, यह तो स्वनप्न, में भी न सोचा था। बिल्कुेल गुम सुम हो गयी है। कितना पूछा–बेटी, तुझसे वह क्योंन नहीं बोलता, किस बात पर नाराज़ है; लेकिन कुछ जवाब ही नहीं देती। बस, आँखों से आँसू बहते हैं, मेरी सुन्‍नी कुएँ में गिर गयी।

मैंने कहा–तुमने उसके घर वालों से पता नहीं लगाया?

‘लगाया क्योंव नहीं भैया, सब हाल मालूम हो गया। लौंडा चाहता है, मैं चाहे जिस राह जाऊँ, सुन्नीं मेरी पूजा करती रहे। सुन्नी  भला इसे क्यों  सहने लगी? उसे तो तुम जानते हो, कितनी अभिमानी है। वह उन स्त्रियों में नहीं है, जो पति को देवता समझती है और उसका दुर्व्ययवहार सहती रहती है। उसने सदैव दुलार और प्यांर पाया है। बाप भी उस पर जान देता था। मैं भी आँख की पुतली समझती थी। पति मिला छैला, जो आधी-आधी रात तक मारा-मारा फिरता है। दोनों में क्याप बात हुई, यह कौन जान सकता है, लेकिन दोनों में कोई गाँठ पड़ गयी है। न वह सुन्नीय की परवाह करता है, न सुन्नी  उसकी परवाह करती है; मगर वह तो अपने रंग में मस्तब है, सुन्नीह प्राण दिये देती है! उसके लिए सुन्नीम की जगह मुन्नी  है, सुन्नीत के लिए उसकी अपेक्षा है–और रुदन है।’

मैंने कहा–लेकिन तुमने सुन्नी  को समझाया नहीं? उस लौंडे का क्याष बिगड़ेगा? इसकी तो ज़िन्दोगी खराब हो जायगी।

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