कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह) ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…
गोपा का मुरझाया हुआ मुख प्रमुदित हो उठा। बोली– इसकी चिन्ता न करो भैया, विधवा की आयु बहुत लंबी होती है। तुमने सुना नहीं, रॉँड मरे न खँडहर ढहे। लेकिन मेरी कामना यह है कि सुन्नी का ठिकाना लगाकर मैं भी चल दूँ। अब और जी कर क्याा करूँगी, सोचो। क्या करूँ, अगर किसी तरह का विहन पड़ गया, तो किसकी बदनामी होगी। इन चार महीनों में मुश्किल से घंटा-भर सोती हूँगी। नींद ही नहीं आती; पर मेरा चित प्रसन्नब है। मैं मरूँ या जीऊँ, मुझे यह सन्तोष तो होगा कि सुन्नीर के लिए उसका बाप जो कर सकता था, वह मैंने कर दिया। मदारीलाल ने अपनी सज्जंनता दिखायी, तो मुझे भी तो अपनी नाक रखनी है।
एक देवी ने आकर कहा–बहन, ज़रा चलकर देख लो, चाशनी ठीक हो गयी है या नहीं। गोपा उसके साथ चाशनी की परीक्षा करने गयी और एक क्षण के बाद आकर बोली–जी चाहता है, सिर पीट लूँ। तुमसे ज़रा बात करने लगी, उधर चाशनी इतनी कड़ी हो गयी कि लडडू दाँतों से लड़ेंगे। किससे क्याे!
मैंने चिढ़ कर कहा–तुम व्य र्थ का झंझट कर रही हो। क्यों नहीं किसी हलवाई को बुलाकर मिठाइयों का ठेका दे देतीं? फिर तुम्हा रे यहाँ मेहमान ही कितने आयेंगे, जिनके लिए यह तूमार बाँध रही हो। दस पाँच की मिठाई उनके लिए बहुत होगी।
गोपा ने व्यचथित नेत्रों से मेरी ओर देखा। मेरी यह आलोचना उसे बुरी लगी। उन दिनों उसे बात-बात पर क्रोध आ जाता था। बोली–भैया, तुम ये बातें न समझोगे। तुम्हेंद न माँ बनने का अवसर मिला, न पत्नी बनने का। सुन्नीम के पिता का कितना नाम था, कितने आदमी उनके दम से जीते थे, क्याी यह तुम नहीं जानते, वह पगड़ी मेरे ही सिर तो बंधी है। तुम्हेंम विश्वाोस न आयेगा, नास्तिक जो ठहरे, पर मैं तो उन्हें सदैव अपने अन्दर बैठा हुआ पाती हूँ, जो कुछ कर रहे हैं वह कर रहे हैं। मैं मन्दबुद्धि स्त्री भला अकेली क्याप कर देती। वही मेरे सहायक हैं वही मेरे प्रकाश है। यह समझ लो कि यह देह मेरी है; पर इसके अन्दर जो आत्मा है वह उनकी है। जो कुछ हो रहा है उनके पुण्य आदेश से हो रहा है तुम उनके मित्र हो। तुमने अपने सैकड़ों रुपये खर्च किये और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहगामिनी हूँ, लोक में भी, परलोक में भी।
मैं अपना सा मुँह ले कर रह गया।
जून में विवाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ दिया और अपनी हैसियत से बहुत ज्याकदा दिया; लेकिन फिर भी, उसे सन्तोष न था। आज सुन्नीी के पिता होते तो न जाने क्या करते। बराबर रोती रही।
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