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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


जब केदार टेनिस खेलने गया, तो मैंने मदारीलाल से कहा–केदार बाबू तो बहुत सच्च,रित्र जान पड़ते हैं, फिर स्त्रीम पुरुष में इतना मनोमालिन्यू क्योंब हो गया?

मदारीलाल ने एक क्षण विचार कर के कहा–इसका कारण इसके सिवा और क्याय बताऊँ कि दोनों अपने माँ-बाप के लाड़ले हैं, और प्यारर लड़कों को अपने मन का बना देता है। मेरा सारा जीवन संघर्ष में कटा। अब जा कर जरा शान्ति मिली है। भोग-विलास का कभी अवसर ही न मिला। दिन भर परिश्रम करता था, संध्या को पड़ कर सो रहता था। स्वाअस्‍थ्यप भी अच्छा  न था; इसलिए बार-बार यह चिन्ता सवार रहती थी कि कुछ सचय कर लूँ। ऐसा न हो कि मेरे पीछे बाल बच्चेा भीख माँगते फिरें। नतीजा यह हुआ कि इन महाशय को मुफ़्त का धन मिला। सनक सवार हो गयी। शराब उड़ने लगी। फिर ड्रामा खेलने का शौक़ हुआ। धन की कमी थी ही नहीं, उस पर माँ-बाप के अकेले बेटे। उनकी प्रसन्नाता ही हमारे जीवन को स्वनर्ग था। पढ़ना-लिखना तो दूर रहा, विलास की इच्छाी बढ़ती गयी। रंग और गहरा हुआ, अपने जीवन का ड्रामा खेलने लगे। मैंने यह रंग देखा तो मुझे चिन्ता हुई। सोचा, ब्या ह कर दूँ, ठीक हो जायगा। गोपा देवी का पैग़ाम आया, तो मैंने तुरन्त स्वीसकार कर लिया। मैं सुन्नीर को देख चुका था। सोचा, ऐसी रूपवती पत्नीढ पाकर इनका मन स्थिर हो जायगा; पर वह भी लाड़ली लड़की थी–हठीली, अबोध, आदर्शवादिनी। सहिष्णु्ता तो उसने सीखी ही न थी। समझौते का जीवन में क्याल मूल्यअ है, इसकी उसे खबर ही नहीं। लोहा लोहे से लड़ गया। वह अभिमान से उसे पराजित करना चाहती है या उपेक्षा से, यही रहस्य  है। और साहब, मैं तो बहू को ही अधिक दोषी समझता हूँ। लड़के प्रायः मनचले होते हैं। लड़कियाँ स्वा भाव से ही सुशील होती हैं और अपनी ज़िम्मे दारी समझती हैं। उनकी सेवा, त्याग और प्रेम ही उनका अस्त्र है, जिससे वे पुरुष पर विजय पाती हैं। उसमें ये गुण हैं नहीं। डोंगा कैसे पार होगा, ईश्वेर ही जाने।

सहसा सुन्नी  अंदर से आ गयी। बिल्कु,ल अपने चित्र की रेखा सी, मानो मनोहर संगीत की प्रतिध्व नि हो। कुंदन तपकर भस्मे हो गया था। मिटी हुई आशाओं का इससे अच्छाअ चित्र नहीं हो सकता। उलाहना देती हुई बोली–आप न जानें कब से बैठे हुए हैं, मुझे ख़बर तक नहीं और शायद आप बाहर ही बाहर चले भी जाते?

मैंने आँसुओं के वेग को रोकते हुए कहा–नहीं सुन्नी , यह कैसे हो सकता था तुम्हा रे पास आ ही रहा था कि तुम स्ववयं आ गयी।

मदारीलाल कमरे के बाहर अपनी कार की सफाई कराने लगे। शायद मुझे सुन्नी् से बातचीत करने का अवसर देना चाहते थे।

सुन्नीा ने पूछा–अम्माँच तो अच्छीे तरह हैं?

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