लोगों की राय

कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं

उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


मदारीलाल मुझे देखते ही मुझसे उन्महत की भाँति लिपट गये और बोले–भाई साहब, मैं तो लुट गया। लड़का भी गया, बहू भी गयी, ज़िन्द गी ही ग़ारत हो गयी।

मालूम हुआ कि जब से केदार ग़ायब हो गया था, सुन्नीट और भी ज्या दा उदास रहने लगी थी। उसने उसी दिन अपनी चूडियां तोड़ डाली थीं और मांग का सिंदूर पोंछ डाला था। सास ने जब आपत्ति की, तो उनको अपशब्द  कहे। मदारीलाल ने समझाना चाहा तो उन्हेंउ भी जली-कटी सुनायी। ऐसा अनुमान होता था– उन्मााद हो गया है। लोगों ने उससे बोलना छोड़ दिया था। आज प्रातःकाल यमुना स्नाान करने गयी। अँधेरा था, सारा घर सो रहा था, किसी को नहीं जगाया। जब दिन चढ़ गया और बहू घर में न मिली, तो उसकी तलाश होने लगी। दोपहर को पता लगा कि यमुना गयी है, लोग उधर भागे। वहाँ उसकी लाश मिली। पुलिस आयी, शव की परीक्षा हुई। अब जा कर शव मिला है। मैं कलेजा थाम कर बैठ गया। हाय, अभी थोड़े दिन पहले जो सुन्दहरी पालकी पर सवार होकर आयी थी, आज वह चार के कंधे पर जा रही है।

मैं अर्थी के साथ हो लिया और वहाँ से लौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे पाँव काँप रहे थे। मालूम नहीं, यह खबर पा कर गोपा की क्यार दशा होगी। प्राणान्त न हो जाय, मुझे यही भय हो रहा था। सुन्नी, उसकी प्राण थी। उसके जीवन का केन्द्रप थी। उस दुखिया के उद्यान में यही पौधा बच रहा था। उसे वह हृदय रक्ती से सींच-सींचकर पाल रही थी। उसके बसन्त का सुनहरा स्व प्न‍ ही उसका जीवन था–उसमें कोपलें निकलेंगी, फूल खिलेंगे, फल लगेंगे, चिड़ियाँ उसकी डालियों पर बैठकर अपने सुहाने राग गायेंगी; किन्तु  आज निष्ठुंर नियति ने उस जीवन सूत्र को उखाड़ कर फेंक दिया। और अब उसके जीवन का कोई आधार न था। वह बिन्दुय ही मिट गया था, जिस पर जीवन की सारी रेखाएँ आकर एकत्र हो जाती थीं।

दिल को दोनों हाथों से थामे, मैंने जंजीर खटखटायी। गोपा एक लालटेन लिए निकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नये आनन्द की झलक देखी।

मेरी शोक मुद्रा देख कर उसने मातृवत् प्रेम से मेरा हाथ पकड़ लिया और बोली–आज तो तुम्हेंक सारे दिन रोते ही कटा। अर्थी के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कि चलकर सुन्नीख के अन्तिम दर्शन कर लूँ। लेकिन, मैंने सोचा–जब सुन्नीं ही न रही, तो उसकी लाश में क्याद रखा है! न गयी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book