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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


उसने इसके साथ ही कहा–लेकिन भाई, एक बात का ख़याल रखना। वहाँ अगर जमींदारों की निन्दा की तो मुआमिला बिगड़ जायगा और मेरे घरवालों को बुरा लगेगा। वह लोग तो आसामियों पर इसी दावे से शासन करते हैं कि ईश्वलर ने असामियों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है। असामी भी यही समझता है। अगर उसे सुझा दिया जाय कि जमींदार और असामी में कोई मौलिक भेद नहीं है, तो जमींदारों का कहीं पता न लगे।

मैंने कहा–तो क्याि तुम समझते हो कि मैं वहाँ जा कर कुछ और हो जाऊँगा।

‘हाँ, मैं तो यही समझता हूँ।’

‘तुम ग़लत समझते हो।’

ईश्वतरी ने इसका कोई जवाब न दिया। कदाचित् उसने इस मुआमले को मेरे विवेक पर छोड़ दिया। और बहुत अच्छाक किया। अगर वह अपनी बात पर अड़ता, तो मैं भी जिद पकड़ लेता।

सेकेंड क्लाऔस तो क्या।, मैंने कभी इंटर क्ला स में भी सफ़र न किया था। अब की सेकेंड क्लांस में सफ़र का सौभाग्य, प्राप्त हुआ। गाड़ी तो नौ बजे रात को आती थी; पर यात्रा के हर्ष में हम शाम को स्टेरशन जा पहुँचे। कुछ देर इधर-उधर सैर करने के बाद रिफ्रेशमेंट-रूम में जाकर हम लोगों ने भोजन किया। मेरी वेशभूषा और रंग-ढंग से पारखी खानसामों को यह पहचानने में देर न लगी कि मालिक कौन है और पिछलग्गूा कौन; लेकिन न जाने क्योंन मुझे उनकी गुस्ताैखी बुरी लग रही थी। पैसे ईश्वररी की जेब से गए। शायद मेरे पिता को जो वेतन मिलता है, उससे ज्यारदा इन ख़ानसामों को इनाम-इकराम में मिल जाता हो। एक अठन्नील तो चलते समय ईश्वयरी ही ने दी। ‍फिर भी मैं उन सभों से उसी तत्प रता और विनय की अपेक्षा करता था, जिससे वे ईश्वशरी की सेवा कर रहे थे। क्योंि ईश्व री के हुक्म  पर सब-के-सब दौड़ते हैं; लेकिन मैं कोई चीज़ माँगता हूँ तो उतना उत्साहह नहीं दिखाते। मुझे भोजन में कुछ स्वा द न मिला। यह भेद मेरे ध्याान को सम्पू र्ण रूप से अपनी ओर खींचे हुए था।

गाड़ी आयी, हम दोनों सवार हुए। ख़ानसामों ने ईश्वमरी को सलाम किया। मेरी ओर देखा भी नहीं।

ईश्वहरी ने कहा–कितने तमीजदार हैं ये सब? एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढंग नहीं।

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