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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


रामहरख बोले–अमीरों का ऐसा स्व भाव बहुत कम देखने में आता है। कोई भाँप ही नहीं सकता।

रियासत अली ने समर्थन किया–आपने महाराजा चाँगली को देखा होता तो दाँतों उँगली दबाते। एक गाढ़े की मिर्जई और चमरौधे जूते पहने बाज़ारों में घूमा करते थे। सुनते हैं, एक बार बेगार में पकड़े गये थे और उन्हीं  ने दस लाख से कालेज खोल दिया।

मैं मन में कटा जा रहा था, पर न जाने क्या  बात थी कि यह सफेद झूठ उस वक्तल मुझे हास्या स्प द न जान पड़ा। उसके प्रत्ये‍क वाक्यय के साथ मानों मैं उस कल्पित वैभव के समीपतर आता जाता था।

मैं शहसवार नहीं हूँ। हाँ, लड़कपन में कई बार लद्द घोड़ों पर सवार हुआ हूँ। यहाँ देखा तो दो कलाँ-रास घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे! मेरी तो जान ही निकल गयी। सवार तो हुआ; पर बोटियाँ काँप रहीं थीं। मैंने चेहरे पर शिकन न पड़ने दिया। घोड़े को ईश्ववरी के पीछे डाल दिया। ख़ैरियत यह हुई कि ईश्व।री ने घोड़े को तेज़ न किया, वरना शायद मैं हाथ-पाँव तुड़वा कर लौटता। सम्भव है, ईश्वतरी ने समझ लिया हो कि यह कितने पानी में है।

ईश्व री का घर क्याह था, क़िला था। इमामबाड़े का–सा फाटक, द्वार पर पहरेदार टहलता हुआ, नौकरों का कोई हिसाब नहीं, एक हाथी बँधा हुआ। ईश्व़री ने अपने पिता, चाचा, ताऊ आदि सबसे मेरा परिचय कराया और उसी अतिशयोक्ति के साथ। ऐसी हवा बाँधी कि कुछ न पूछिए। नौकर-चाकर ही नहीं, घर के लोग भी मेरा सम्माेन करने लगे। देहात के ज़मींदार, लाखों का मुनाफ़ा, मगर पुलिस कान्समटेबिल को भी अफ़सर समझने वाले। कई महाशय तो मुझे हुजूर-हुजूर कहने लगे।

जब जरा एकान्त  हुआ, तो मैंने ईश्व री से कहा–तुम बड़े शैतान हो यार, मेरी मिट्टी क्योंा पलीद कर रहे हो?

ईश्व री ने दृढ़ मुस्कामन के साथ कहा–इन गधों के सामने यही चाल जरूरी थी; वरना सीधे मुँह बोलते भी नहीं।

जरा देर के बाद नाई हमारे पाँव दबाने आया। कुँवर लोग स्टेगशन से आये हैं, थक गये होंगे। ईश्वबरी ने मेरी ओर इशारा करके कहा–पहले कुँवर साहब के पाँव दबा।

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