कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह) ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…
मैं चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने मेरे पाँव दबाये हों। मैं इसे अमीरों के चोंचले, रईसों का गधापन और बड़े आदमियों की मुटमरदी और जाने क्याय-क्या कहकर ईश्व,री का परिहास किया करता और आज मैं पोतड़ों का रईस बनने का स्वाँ ग भर रहा था।
इतने में दस बज गये। पुरानी सभ्य ता के लोग थे। नयी रोशनी अभी केवल पहाड़ की चोटी तक पहुँच पायी थी। अन्दर से भोजन का बुलावा आया। हम स्नाहन करने चले। मैं हमेशा अपनी धोती खुद छाँट लिया करता हूँ; मगर यहाँ मैंने ईश्वसरी की ही भाँति अपनी धोती भी छोड़ दी। अपने हाथों अपनी धोती छाँटते शर्म आ रही थी। अन्दर भोजन करने चले। होस्टड़ल में जूते पहने मेज पर जा डटते थे। यहाँ पाँव धोना आवश्येक था। कहार पानी लिये खड़ा था। ईश्वजरी ने पाँव बढ़ा दिये। कहार ने उसके पाँव धोये। मैंने भी पाँव बढ़ा दिये। कहार ने मेरे पाँव भी धोये। मेरा वह विचार न जाने कहाँ चला गया था।
सोचा था, वहाँ देहात में एकाग्र हो कर खूब पढ़ेंगे; पर यहाँ सारा दिन सैरसपाटे में कट जाता था। कहीं नदी में बजरे पर सैर कर रहे हैं, कहीं मछलिेयों या चिड़ियों का शिकार खेल रहे हैं, कहीं पहलवानों की कुश्तीा देख रहे हैं, कहीं शतरंज पर जमें हैं। ईश्व री खूब अंडे मँगवाता और कमरे में ‘स्टोंव’ पर आमलेट बनते। नौकरों का एक जत्था हमेशा घेरे रहता। अपने हाथ-पाँव हिलाने की कोई जरूरत नहीं। केवल जबान हिला देना काफ़ी है। नहाने बैठो तो आदमी नहलाने को हाजिर, लेटे तो आदमी पंखा झलने को खड़े। मैं महात्माै गाँधी का कुँवर चेला मशहूर था। भीतर से बाहर तक मेरी धाक थी। नाश्ते। में जरा भी देर न होने पाये, कहीं कुँवर साहब नाराज न हो जायँ, बिछावन ठीक समय पर लग जाय, कुँवर साहब के सोने का समय आ गया। मैं ईश्वधरी से भी ज्या दा नाजुक दिमाग बन गया था, या बनने पर मजबूर किया गया था। ईश्व री अपने हाथ से बिस्तार बिछा ले, लेकिन कुँवर मेहमान अपने हाथों कैसे अपना बिछावन बिछा सकते हैं! उनकी महानता में बट्टा लग जाएगा।
एक दिन सचमुच यही बात हो गयी। ईश्वँरी घर में था। शायद अपनी माता से कुछ बातचीत करने में देर हो गयी। यहाँ दस बज गये। मेरी आँखें नींद से झपक रही थीं; मगर बिस्तनर कैसे लगाऊँ? कुँवर जो ठहरा। कोई साढ़े ग्यांरह बजे महरा आया। बड़ा मुँह लगा नौकर था। घर के धंधों में मेरा बिस्तशर लगाने की उसे सुधि ही न रही। अब जो याद आयी, तो भागा हुआ आया। मैंने ऐसी डाँट बतायी कि उसने भी याद किया होगा।
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