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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


ईश्व री मेरी डाँट सुन कर बाहर निकल आया और बोला–तुमने बहुत अच्छा‍ किया। यह सब हरामखोर इसी व्यरवहार के योग्य  हैं।

इसी तरह ईश्वसरी एक दिन एक जगह दावत में गया हुआ था। शाम हो गयी; मगर लैम्पय न जला। लैम्प मेज पर रखा हुआ था। दियासलाई भी वहीं थी; लेकिन ईश्वररी खुद कभी लैम्प। नहीं जलाता था। ‍‍फिर कुँवर साहब कैसे जलायें? मैं झुँझला रहा था। समाचार-पत्र आया रखा हुआ था। जी उधर लगा हुआ था; पर लैम्प  नदारद। दैवयोग से उसी वक्तर मुन्शी रियासत अली आ निकले। मैं उन्हींम पर उबल पड़ा, ऐसी फटकार बतायी कि बेचारा उल्लूख हो गया–तुम लोगों को इतनी फिक्र भी नहीं कि लैम्पड तो जलवा दो! मालूम नहीं, ऐसे कामचोर आदमियों का यहाँ कैसे गुज़र होता है। मेरे यहाँ घंटे-भर निर्वाह न हो। रियासत अली ने काँपते हुए हाथों से लैम्पो जला दिया।

वहाँ एक ठाकुर अक्सार आया करता था। कुछ मनचला आदमी था, महात्मा  गाँधी का परम भक्तल। मुझे महात्माकजी का चेला समझ कर मेरा बड़ा लिहाज करता था; पर मुझसे कुछ पूछते संकोच करता था। एक दिन मुझे अकेला देख कर आया और हाथ बाँध कर बोला–सरकार तो गाँधी बाबा के चेले हैं न? लोग कहते हैं कि यह सुराज हो जायगा तो जमींदार न रहेंगे।

मैंने शान जमायी–जमींदारों के रहने की जरूरत ही क्याह है? यह लोग गरीबों का खून चूसने के सिवा और क्याथ करते हैं?

ठाकुर ने ‍फिर पूछा–तो क्यों , सरकार, सब जमींदारों की जमीन छीन ली जायगी?

मैंनें कहा–बहुत से लोग तो खुशी से दे देंगे। जो लोग खुशी से न देंगे उनकी जमीन छीननी ही पड़ेगी। हम लोग तो तैयार बैठे हुए हैं। ज्यों  ही स्व राज्यी हुआ, अपने इलाक़े असामियों के नाम हिब्बा कर देंगे।

मैं कुरसी पर पाँव लटकाये बैठा था। ठाकुर मेरे पाँव दबाने लगा। फिर बोला–आजकल जमींदार लोग बड़ा जुलुम करते हैं सरकार! हमें भी हुजूर, अपने इलाके में थोड़ी-सी जमीन दे दें, तो चल कर वहीं आपकी सेवा में रहें।

मैंने कहा–अभी तो मेरा कोई अख्तियार नहीं है भाई; लेकिन ज्यों  ही अख्तियार मिला, मैं सबसे पहले तुम्हेंभ बुलाऊँगा। तुम्हेंव मोटर-ड्राइवरी सिखा कर अपना ड्राइवर बना लूँगा।

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