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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


प्या री बोली–तो मैं ही यहाँ रहकर क्या, करूँगी। मुझे भी लेते चलो।

दुलारी उसे साथ ले चलने को तैयार न थी। कुछ दिन जीवन का आनन्द उठाना चाहती थी; अगर परदेश में भी यह बंधन रहा, तो जाने से फ़ायदा ही क्याा। बोली–बहन, तुम चलतीं तो क्याप बात थी, लेकिन फिर यहाँ का कारोबार तो चौपट हो जायगा। तुम तो कुछ न कुछ देख-भाल करती ही रहोगी।

प्रस्थाोन की तिथि के एक दिन पहले ही रामप्या री ने रात-भर जागकर हलुआ और पूरियाँ पकायीं। जब से इस घर में आयी, कभी एक दिन के लिए अकेले रहने का अवसर नहीं आया। दोनों बहनें सदा साथ रहीं। आज उस भयंकर अवसर को सामने आते देखकर प्या री का दिल बैठा जाता था। वह देखती थी, मथुरा प्रसन्नत है, बाल-वृन्दो यात्रा के आनन्द में खाना-पीना तक भूले हुए हैं, तो उसके जी में आता, वह भी इसी भाँति निर्द्वन्व्रा रहे, मोह और ममता को पैरों से कुचल डाले; किन्तु  वह ममता जिस खाद्य को खा-खा कर पली थी, उसे अपने सामने से हटाये जाते देखकर क्षुब्धे होने से न रुकती थी, दुलारी तो इस तरह निश्चि न्त होकर बैठी थी, मानो कोई मेला देखने जा रही है। नयी-नयी चीजों को देखने, नयी दुनिया में विचरने की उत्सुोकता ने उसे क्रियाशून्या-सा कर दिया था। प्या री के सिरे सारे प्रबन्ध का भार था। धोबी के घर से सब कपड़े आये हैं, या नहीं, कौन-कौन-से बरतन साथ जायँगे, सफ़र-खर्च के लिए कितने रुपयों की ज़रूरत होगी। एक बच्चेा को खाँसी आ रही थी, दूसरे को कई दिन से दस्तघ आ रहे थे, उन दोनों की औषधियों को पीसना-कूटना आदि सैकड़ों ही काम व्य स्तस किये हुए थे। लड़कोरी न होकर भी वह बच्चों  के लालन-पोषण में दुलारी से कुशल थी। ‘देखो बच्चोंआ को बहुत मारना-पीटना मत। मारने से बच्चे- जिद्दी या बेहया हो जाते हैं। बच्चोंक के साथ आदमी को बच्चाा बन जाना पड़ता है, कभी उनके साथ खेलना पड़ता है, कभी हँसना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चेा चुपचाप बैठे रहें, हाथ-पैर न हिलायें, तो यह हो नहीं सकता। बच्चेस तो स्व भाव के चंचल होते हैं। उन्हें  किसी न किसी काम में फॅंसाये रखो। धेले का खिलौना हजार घुड़कियों से बढ़कर होता है।’ दुलारी उपदेशों को इस तरह बेमन होकर सुनती थी, मानों कोई सनक कर बक रहा हो।

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