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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


एक दिन मथुरा ने कहा–भाभी, अब तो कहीं परदेश जाने का जी होता है। यहाँ तो कमाई में बरक्कत नहीं। किसी तरह पेट की रोटी चल जाती हैं। वह भी रो-धो कर। कई आदमी पूरब से आये हैं। वे कहते हैं, वहाँ दो-तीन रुपये रोज की मजदूरी हो जाती है। चार-पाँच साल भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊँगा। अब आगे लड़के-बाले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।

दुलारी ने समर्थन किया–हाथ में चार पैसे होंगे, लड़कों को पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। हमारी तो किसी तरह कट गयी, लड़कों को तो आदमी बनाना है।

प्या री यह प्रस्तामव सुनकर अवाक् रह गयी। उनका मुँह ताकने लगी। इसके पहले इस तरहा की बातचीत कभी न हुई थी। यह धुन कैसे सवार हो गयी? उसे संदेह हुआ, शायद मेरे कारण यह भावना उत्पनन्नर हुई है। बोली–मैं तो जाने को न कहूँगी, आगे जैसी इच्छाक हो। लड़कों को पढ़ाने-लिखाने के लिए यहाँ भी तो मदरसा है। फिर क्याा नित्यह यही दिन बने रहेंगे। दो-तीन साल भी खेती बन गयी, तो सब कुछ हो जायेगा।

मथुरा–इतने दिन खेती करते हो गये, जब अब तक न बनी, तो अब क्या् बन जायगी! इसी तरह एक दिन चल देंगे, मन की मन में रह जायगी। फिर अब पौरुख भी तो थक रहा है। यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं इस चक्की  में जोत कर उनकी जिन्दबगी नहीं खराब करना चाहता।

प्‍यारी ने आँखों में आँसू ला कर कहा–भैया, घर पर जब तक आधी मिले, सारी के लिए न धावना चाहिए; अगर मेरी ओर से कोई बात हो तो अपना घर-बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूँगी।

मथुरा आर्द्र-कंठ हो कर बोला–भाभी, यह तुम क्याब कहती हो। तुम्हाभरे ही सँभाले यह घर अब तक चला है, नहीं रसातल को चला गया होता। इस गिरस्ती  के पीछे तुमने अपने को मिटटी में मिला दिया, अपनी देह घुला डाली। मैं अन्धा नहीं हूँ। सब कुछ समझता हूँ। हम लोगों को जाने दो। भगवान् ने चाहा तो घर ‍फिर सँभल जायगा। तुम्हाुरे लिए हम बराबर खरच-वरच भेजते रहेंगे।

प्याररी ने कहा–तो ऐसी ही है तो तुम चले जाओ, बाल-बच्चोंग को कहाँ-कहाँ बाँधे फिरोगे?

दुलारी बोली–यह कैसे हो सकता है बहन; यहाँ देहात में लड़के क्या पढ़े-लिखेंगे। बच्चोंे के बिना इनका जी भी वहाँ न लगेगा। दौड़-दौड़ कर घर आयेंगे और सारी कमाई रेल खा जायगी। परदेश में अकेले जितना खरचा होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।

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