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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


इस हंगामे में प्रेमसिंह की बात किसी ने न सुनी। एक नौजवान जाट ने जिसकी आँखें नशे से लाल हो रही थीं, ललकार कर कहा—इस बुड्ढे की मूछें उखाड़ लो।

वृन्दा आँगन में पत्थर की मूरत की तरह खड़ी यह कैफ़ियत देख रही थी। जब उसने दो सिपाहियों को प्रेमसिंह की मूछें पकड़कर खींचते देखा तो उससे न रहा गया, वह निर्भय सिपाहियों के बीच में घुस आयी और ऊँची आवाज में बोली—कौन मेरा गाना सुनना चाहता है?

सिपाहियों ने उसे देखते ही प्रेमसिंह को छोड़ दिया और बोले—हम सब तेरा गाना सुनेंगे।

वृन्दा—अच्छा बैठ जाओ, मैं गाती हूँ। इस पर कई सिपाहियों ने ज़िद की कि इसे पड़ाव पर ले चलो, वहाँ खूब रंग जमेगा।

जब वृन्दा सिपाहियों के साथ पड़ाव की तरफ़ चली तो प्रेमसिंह ने कहा—वृन्दा इनके साथ जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना।

वृन्दा जब पड़ाव पर पहुँची तो वहाँ बदमस्तियों का एक तूफ़ान मचा हुआ था। विजय की देवी दुश्मन को बर्बाद करके अब विजेताओं की मानवता और सज्जनता को पाँव से कुचल रही थी। हैवानियत का खूँखार शेर दुश्मन के ख़ून से तृप्त न होकर अब मानवोचित भावों का खून चूस रहा था। वृन्दा को लोग एक सजे हुए खेमे में ले गये। यहाँ फ़र्शी चिराग़ रोशन थे और आग जैसी शराब के दौर चल रहे थे। वृन्दा उस मेमने की तरह, जो खूँखार दरिन्दों के पंजे में फँस जाता है, फर्श के एक कोने पर सहमी हुई बैठी हुई थी। वासना का भूत जो इस वक़्त दिलों में अपनी शैतानी फ़ौज सजाये बैठा था कभी आँखों की कमान से सतीत्व का नाश करने वाले तेज तीर चलाता और कभी मुँह की कमान से मर्मबेधी बाणों की बौछार करता। ज़हरीली शराब में बुझे हुए यह तीर वृन्दा के कोमल और पवित्र हृदय को छेदते हुए पार हो जाते थे। वह सोच रही थी—ऐ द्रौपदी की लाज रखने वाले कृष्ण भगवान, तुमने धर्म के बन्धन से बँधे हुए पाण्डवों के होते हुए द्रौपदी की लाज रखी थी, मैं तो दुनिया में बिलकुल अनाथ हूँ, क्या मेरी लाज न रखोगे? यह सोचते हुए उसने मीरा का यह मशहूर भजन गाया—
सिया रघुबीर भरोसो ऐसो।

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