लोगों की राय

कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं

उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


वृन्दा ने यह गीत बड़े मोहक ढंग से गाया। उसके मीठे सुरों में मीरा का अन्दाज़ पैदा हो गया था। प्रकट रूप से वह शराबी सिपाहियों के सामने बैठे गा रही थी मगर कल्पना की दुनिया में वह मुरली वाले श्याम के सामने हाथ बाँधे खड़ी उससे प्रार्थना कर रही थी।

ज़रा देर के लिए उस शोर से भरे हुए महल में निस्तब्धता छा गयी। इन्सान के दिल में बैठे हुए हैवान पर भी प्रेम की यह तड़पा देने वाली पुकार अपना जादू चला गयी। मीठा गाना मस्त हाथी को भी बस में कर लेता है। पूरे घंटे भर तक वृन्दा ने सिपाहियों को मूर्तिवत रक्खा। सहसा घड़ियाल ने पाँच बजाये। सिपाही और सरदार सब चौंक पड़े। सबका नशा हिरन हो गया। चालीस कोस की मंज़िल तय करनी है, फुर्ती के साथ रवानगी की तैयारियाँ होने लगीं। खेमे उठने लगे सवारों ने घोड़ों को दाना खिलाना शुरू किया। एक भगदड़-सी मच गयी। उधर सूरज निकला इधर फ़ौज ने कूच का डंका बजा दिया। शाम को जिस मैदान का एक-एक कोना आबाद था, सुबह को वहाँ कुछ भी न था। सिर्फ़ टूटे-फूटे उखड़े चूल्हों की राख और खेमों की कीलों के निशान उस शान-शौकत की यादगार के रूप में रह गये थे। वृन्दा ने जब महफ़िल के लोगों को रवानगी की तैयारियों में व्यस्त देखा तो वह खेमे से बाहर निकल आयी। कोई बाधक न हुआ। मगर उसका दिल धड़क रहा था कि कहीं कोई आकर फिर न पकड़ ले। जब वह पेड़ों के झुरमुट से बाहर पहुँची तो उसकी जान में जान आयी। बड़ा सुहाना मौसम था, ठंडी-ठंडी मस्त हवा पेड़ों के पत्तों पर धीमे-धीमे चल रही थी और पूरब के क्षितिज से सूर्य भगवान की अगवानी के लिए लाल मखमल का फ़र्श बिछाया जा रहा था। वृन्दा ने आगे क़दम बढ़ाना चाहा। मगर उसके पाँव न उठे। प्रेमसिंह की यह बात कि सिपाहियों के साथ जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना, उसे याद आ गयी। उसने एक लम्बी साँस ली और ज़मीन पर बैठ गयी। दुनिया में अब उसके लिए कोई ठिकाना न था।

उस अनाथ चिड़िया की हालत कैसी दर्दनाक है जो दिल में उड़ने की चाह लिये हुए बहेलिये की क़ैद से निकल आती है मगर आज़ाद होने पर उसे मालूम होता है कि उस निष्ठुर बहेलिये ने उसके परों को काट दिया है। वह पेड़ों की सायेदार डालियों की तरफ़ बार-बार हसरत की निगाहों से देखती है मगर उड़ नहीं सकती और एक बेबसी के आलम में सोचने लगती है कि काश बहेलिया मुझे फिर से अपने पिंजरे में कैद कर लेता। वृन्दा की हालत इस वक़्त ऐसी ही दर्दनाक थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book