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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


मगर कुंवर इन्दरमल को राजा साहब की इन मस्ताना कार्रवाइयों में बिलकुल आस्था न थी। वह प्रकृति से एक बहुत गम्भीर और सीधा-सादा नवयुवक था। यों ग़जब का दिलेर, मौत के सामने भी ताल ठोंककर उतर पड़े मगर उसकी बहादुरी ख़ून की प्यास से पाक थी। उसके वार बिना पर की चिड़ियों या बेज़बान जानवरों पर नहीं होते थे। उसकी तलवार कमज़ोरों पर नहीं उठती थी। ग़रीबों की हिमायत, अनाथों की सिफ़ारिशें, निर्धनों की सहायता और भाग्य के मारे हुओं के घाव की मरहम-पट्टी इन कामों से उसकी आत्मा को सुख मिलता था। दो साल हुए वह इंदौर कालेज से ऊँची शिक्षा पाकर लौटा था और तब से उसका यह जोश असाधारण रुप में बढ़ा हुआ था, इतना कि वह साधारण समझदारी की सीमाओं को लांघ गया था, चौबीस साल का लम्बा-तड़ंगा हैकल जवान, धन ऐश्वर्य के बीच पला हुआ, जिसे चिन्ताओं की कभी हवा तक न लगी, अगर रुलाया तो हँसी ने। वह ऐसा नेक हो, उसके मर्दाना चेहरे पर चिन्तन का पीलापन और झुर्रियाँ नज़र आयें यह एक असाधारण बात थी। उत्सव का शुभ दिन पास आ पहुँचा था, सिर्फ़ चार दिन बाक़ी थे। उत्सव का प्रबन्ध पूरा हो चुका था, सिर्फ़ अगर कसर थी तो कहीं-कहीं दोबारा नज़र डाल लेने की। तीसरे पहर का वक़्त था, राजा साहब रनिवास में बैठे हुए कुछ चुनी हुई अप्सराओं का गाना सुन रहे थे। उनकी सुरीली तानों से जो खुशी हो रही थी; उससे कहीं ज़्यादा खुशी यह सोचकर हो रही थी कि यह तराने पोलिटिकल एजेण्ट को भड़का देंगे। वह आँखें बन्द करके सुनेगा और खुशी के मारे उछल-उछल पड़ेगा।

इस विचार से जो प्रसन्नता होती थी वह तानसेन की तानों में भी नहीं हो सकती थी। आह, उसकी ज़बान से अनजाने ही, ‘वाह-वाह’ निकल पड़ेगी। अजब नहीं कि उठकर मुझसे हाथ मिलाये और मेरे चुनाव की तारीफ़ करे। इतने में कुंवर इन्दरमल बहुत सादा कपड़े पहने सेवा में उपस्थित हुए और सर झुकाकर अभिवादन किया। राजा साहब की आँखें शर्म से झुक गईं, मगर कुँवर साहब का इस समय आना अच्छा नहीं लगा। गानेवालियों को वहाँ से उठ जाने का इशारा किया।

कुंवर इन्दरमल बोले—महाराज, क्या मेरी बिनती पर बिलकुल ध्यान न दिया जायेगा?

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