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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


राजा साहब गद्दी के उत्तराधिकारी राजकुमार की इज्जत करते थे और मुहब्बत तो कुदरती बात थी, तो भी उन्हें यह बेमौका हठ पसन्द न आता था। वह इतने संकीर्ण बुद्धि न थे कि कुंवर साहब की नेक सलाहों की क़द्र न करें। इससे निश्चय ही राज्य पर बोझ बढ़ता जाता था और रिआया पर बहुत ज़ुल्म करना पड़ता था। मैं अंधा नहीं हूँ कि ऐसी मोटी-मोटी बातें न समझ सकूँ। मगर अच्छी बातें भी मौका-महल देखकर की जाती हैं। आख़िरकार नाम और यश, इज्ज़त और आबरु भी कोई चीज है? रियासत में संगमरमर की सड़कें बनवा दूँ, गली-गली मदरसे खोल दूँ, घर-घर कुएँ खोदवा दूँ, दवाओं की नहरें जारी कर दूँ मगर दशहरे की धूम-धाम से रियासत की जो इज्ज़त और नाम है वह इन बातों से कभी हासिल नहीं हो सकता। यह हो सकता है कि धीरे-धीरे यह खर्च घटा दूँ मगर एकबारगी ऐसा करना न तो उचित है और न सम्भव। जवाब दिया—आख़िर तुम क्या चाहते हो? क्या दशहरा बिलकुल बन्द कर दूँ?

इन्दरमल ने राजा साहब के तेवर बदले हुए देखे, तो आदरपूर्वक बोले—मैंने कभी दशहरे के उत्सव के खिलाफ़ मुँह से एक शब्द नहीं निकाला, यह हमारा जातीय पर्व है, यह विजय का शुभ दिन है, आज के दिन खुशियाँ मनाना हमारा जातीय कर्तव्य है। मुझे सिर्फ़ इन अप्सराओं से आपत्ति है, नाच-गाने से इस दिन की गम्भीरता और महत्ता डूब जाती है।

राजा साहब ने व्यंग्य के स्वर में कहा—तुम्हारा मतलब है कि रो-रोकर जशन मनाएँ, मातम करें।

इन्दरमल ने तीखे होकर कहा—यह न्याय के सिद्धान्तों के खिलाफ़ बात है कि हम तो उत्सव मनाएँ, और हज़ारों आदमी उसकी बदौलत मातम करें। बीस हज़ार मज़दूर एक महीने से मुफ़्त में काम कर रहे हैं, क्या उनके घरों में खुशियाँ मनाई जा रही हैं? जो पसीना बहायें वह रोटियों को तरसें और जिन्होंने हरामकारी को अपना पेशा बना लिया है, वह हमारी महफ़िलों की शोभा बनें। मैं अपनी आँखों से यह अन्याय और अत्याचार नहीं देख सकता। मैं इस पाप-कर्म में योग नहीं दे सकता। इससे तो यही अच्छा है कि मुँह छिपाकर कहीं निकल जाऊँ। ऐसे राज में रहना, मैं अपने उसूलों के खिलाफ़ और शर्मनाक समझता हूँ।

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