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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


इन्दरमल से फ़ारिग़ होकर राजा साहब का ध्यान रानी की तरफ़ पहुँचा और जब उसकी आग की तरह दहकती हुई बातें याद आयीं तो गुस्से से बदन में पसीना आ गया और वह बेताब होकर उठकर टहलने लगे। बेशक, मैं उसके साथ बेरहमी से पेश आया। माँ को अपनी औलाद ईमान से भी ज़्यादा प्यारी होती है और उसका रुष्ट होना उचित था मगर इन धमकियों के क्या माने? इसके सिवा कि वह रुठकर मैके चली जाए और मुझे बदनाम करे, वह मेरा और क्या कर सकती है? अक्लमन्दों ने कहा है कि औरत की जात बेवफ़ा होती है, वह मीठे पानी की चंचल, चुलबुली-चमकीली धारा है, जिसकी गोद में चहकती और चिमटती है उसे बालू का ढेर बनाकर छोड़ती है। यही भान कुंवर है जिसकी नाज़बरदारियां मुहब्बत का दर्जा रखती हैं। आह, क्या वह पिछली बातें भूल जाऊँ! क्या उन्हें क़िस्सा समझकर दिल को तसकीन दूँ।

इसी बीच में एक लौंडी ने आकर कहा कि महारानी ने हाथी मँगवाया है और न जाने कहाँ जा रही हैं। कुछ बताती नहीं। राजा ने सुना और मुँह फेर लिया।

शहर इन्दौर से तीन मील दूर उत्तर की तरफ़ घने पेड़ों के बीच में एक तालाब है जिसके चाँदी-जैसे चेहरे से काई का हरा मखमली घूँघट कभी नहीं उठता। कहते हैं किसी ज़माने में उसके चारों तरफ़ पक्के घाट बने हुए थे मगर इस वक़्त तो सिर्फ़ यह जनश्रुति बाक़ी थी जो कि इस दुनिया में अकसर ईंट-पत्थर की यादगारों से ज़्यादा टिकाऊ हुआ करती है।

तालाब के पूरब में एक पुराना मन्दिर था, उसमें शिव जी राख की धूनी रमाये ख़ामोश बैठे हुए थे। अबाबीलें और जंगली कबूतर उन्हें अपनी मीठी बोलियाँ सुनाया करते। मगर उस वीराने में भी उनके भक्तों की कमी न थी। मंदिर के अन्दर भरा हुआ पानी और बाहर बदबूदार कीचड़, इस भक्ति के प्रमाण थे। वह मुसाफ़िर जो इस तालाब में नहाता उसके एक लोटे पानी से अपने ईश्वर की प्यास बुझाता था। शिव जी खाते कुछ न थे मगर पानी बहुत पीते थे। उनकी न बुझने वाली प्यास कभी न बुझती थी।

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