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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


इन्दरमल—मेरा जी चाहता है कि अपना गला घोंट लूँ।

रानी—गुस्सा बुरी बला है। तुम्हारे आने के बाद मैंने रार मचाई और कुछ यही इरादा करके इन्दौर जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गए।

यह बातें हो ही रही थीं कि सामने से बहलियों और साँड़नियों की एक लम्बी कतार आती हुई दिखाई दी। साँड़नियों पर मर्द सवार थे। सुरमा लगी आँखों वाले, पेंचदार जुल्फोंवाले। बहलियों में हुस्न के जलवे थे। शोख निगाहें, बेधड़क चितवनें, यह उन नाच-रंग वालों का काफ़िला था जो अचलगढ़ से निराश और खिन्न चला आता था। उन्होंने रानी की सवारी देखी और कुंवर का घोड़ा पहचान लिया। घमण्ड से सलाम किया मगर बोले नहीं। जब वह दूर निकल गए तो कुंवर ने ज़ोर से कहकहा मारा। यह विजय का नारा था।

रानी ने पूछा—यह क्या कायापलट हो गई। यह सब अचलगढ़ से लौटे आते हैं और ऐन दशहरे के दिन?

इन्दरमल बड़े गर्व से बोले—यह पोलिटिकल एजेण्ट के इनकारी तार के करिश्में हैं, मेरी चाल बिलकुल ठीक पड़ी।

रानी का सन्देह दूर हो गया। ज़रूर यही बात है यह इनकारी तार की करामात है। वह बड़ी देर तक बेसुध-सी ज़मीन की तरफ़ ताकती रही और उसके दिल में बार-बार यह सवाल पैदा होता था, क्या इसी का नाम राजहठ है।

आख़िर इन्दरमल ने ख़ामोशी तोड़ी—क्या आज चलने का इरादा है कि कल?

रानी—कल शाम तक हमको अचलगढ़ पहुँचना है, महाराज घबराते होंगे।

—ज़माना, सितम्बर १९१२
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