कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
रात का वक़्त था। जब अपने दरवाज़े पर पहुँचा तो नाच-गाने की महफ़िल सजी देखी। उसके क़दम आगे न बढ़े, लौट पड़ा और एक दुकान के चबूतरे पर बैठकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। इतना तो उसे यकीन था कि सेठ जी उसके साथ भी भलमनसी और मुहब्बत से पेश आयेंगे बल्कि शायद अब और भी कृपा करने लगें। सेठानियाँ भी अब उसके साथ गैरों का-सा वर्ताव न करेंगी। मुमकिन है मझली बहू जो इस बच्चे की खुशनसीब माँ थीं, उससे दूर-दूर रहें मगर बाकी चारों सेठानियों की तरफ़ से सेवा-सत्कार में कोई शक नहीं था। उनकी डाह से वह फ़ायदा उठा सकता था। ताहम उसके स्वाभिमान ने गवारा न किया कि जिस घर में मालिक की हैसियत से रहता था उसी घर में अब एक आश्रित की हैसियत से ज़िन्दगी बसर करे। उसने फ़ैसलाकर लिया कि अब यहाँ रहना न मुनासिब है, न मसलहत। मगर जाऊँ कहाँ? न कोई ऐसा फ़न सीखा, न कोई ऐसा इल्म हासिल किया जिससे रोजी कमाने की सूरत पैदा होती। रईसाना दिलचस्पियाँ उसी वक़्त तक क़द्र की निगाह से देखी जाती हैं जब तक कि वे रईसों के आभूषण रहें। जीविका बन कर वे सम्मान के पद से गिर जाती हैं। अपनी रोजी हासिल करना तो उसके लिए कोई ऐसा मुश्किल काम न था। किसी सेठ-साहूकार के यहाँ मुनीम बन सकता था, किसी कारखाने की तरफ़ से एजेंट हो सकता था, मगर उसके कन्धे पर एक भारी जुआ रक्खा हुआ था, उसे क्या करे। एक बड़े सेठ की लड़की जिसने लाड़-प्यार में परवरिश पाई, उससे यह कंगाली की तकलीफें क्योंकर झेली जाएँगीं। क्या मक्खनलाल की लाड़ली बेटी एक ऐसे आदमी के साथ रहना पसन्द करेगी जिसे रात की रोटी का भी ठिकाना नहीं! मगर इस फ़िक्र में अपनी जान क्यों खपाऊँ। मैंने अपनी मर्ज़ी से शादी नहीं की। मैं बराबर इनकार करता रहा। सेठ जी ने ज़बर्दस्ती मेरे पैरों में बेड़ी डाली हैं। अब वही इसके जिम्मेदार हैं। मुझे इससे कोई वास्ता नहीं। लेकिन जब उसने दुबारा ठंडे दिल से इस मसले पर ग़ौर किया तो बचाव की कोई सूरत नज़र न आई। आख़िरकार उसने यह फ़ैसला किया कि पहले नागपुर चलूँ, ज़रा उन महारानी के तौर-तरीक़े को देखूँ, बाहर-ही-बाहर उनके स्वभाव की, मिज़ाज की जाँच करूँ। उस वक़्त तय करूँगा कि मुझे क्या करना चाहिये। अगर रईसी की बू उनके दिमाग़ से निकल गई है और मेरे साथ रूखी रोटियाँ खाना उन्हें मंजूर है, तो इससे अच्छा फिर और क्या, लेकिन अगर वह अमीरी ठाट-बाट के हाथों बिकी हुई हैं तो मेरे लिए रास्ता साफ है। फिर मैं हूँ और दुनिया का ग़म। ऐसी जगह जाऊँ जहाँ किसी परिचित की सूरत सपने में भी न दिखाई दे। ग़रीबी की ज़िल्लत ज़िल्लत नहीं रहती, अगर अजनबियों में ज़िन्दगी बसर की जाए। यह जानने-पहचानने वालों की कनखियाँ और कनबतियाँ हैं जो ग़रीबी को यन्त्रणा बना देती हैं। इस तरह दिल में ज़िन्दगी का नक्शा बनाकर मगनदास अपनी मर्दाना हिम्मत के भरोसे पर नागपुर की तरफ़ चला, उस मल्लाह की तरह जो किश्ती और पाल के बग़ैर नदी की उमड़ती हुई लहरों में अपने को डाल दे।
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