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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


तीन महीने गुज़र गये। मगनदास रम्भा को ज्यों-ज्यों बारीक से बारीक निगाहों से देखता त्यों–त्यों उस पर प्रेम का रंग गाढ़ा होता जाता था। वह रोज उसे कुएँ से पानी निकालते देखता, वह रोज घर में झाड़ू देती, रोज खाना पकाती। आह मगनदास को उन ज्वार की रोटियां में मज़ा आता था, वह अच्छे से अच्छे व्यंजनों में भी न आया था। उसे अपनी कोठरी हमेशा साफ़ सुथरी मिलती। न जाने कौन उसके बिस्तर बिछा देता। क्या यह रम्भा की कृपा थी? उसकी निगाहें कैसी शर्मीली थीं। उसने उसे कभी अपनी तरफ़ चंचल आँखों से ताकते नहीं देखा। आवाज कैसी मीठी। उसकी हँसी की आवाज़ कभी उसके कान में नहीं आई। अगर मगनदास उसके प्रेम में मतवाला हो रहा था तो कोई ताज्जुब की बात नहीं थी। उसकी भूखी निगाहें बेचैनी और लालसा में डूबी हुई हमेशा रम्भा को ढूँढा करतीं। वह जब किसी दूसरे गाँव को जाता तो मीलों तक उसकी ज़िद्दी और बेताब आँखें मुड़-मुड़कर झोंपड़े के दरवाजे़ की तरफ़ आतीं। उसकी ख्याति आस-पास फैल गई थी। मगर उसके स्वभाव की मुरौबत और उदारहृदयता से अकसर लोग अनुचित लाभ उठाते थे। इन्साफ़ पसन्द लोग तो स्वागत सत्कार से काम निकाल लेते और जो लोग ज़्यादा समझदार थे वे लगातार तकाजों का इन्तज़ार करते। चूंकि मगनदास इस फ़न को बिलकुल नहीं जानता था, बावजूद दिन-रात की दौड़-धूप के ग़रीबी से उसका गला न छूटता। जब वह रम्भा को चक्की पीसते हुए देखता तो गेहूँ के साथ उसका दिल भी पिस जाता था। वह कुएँ से पानी निकालती तो उसका कलेजा निकल आता। जब वह पड़ोस की औरतों के कपड़े सीती तो कपड़ों के साथ मगनदास का दिल छिद जाता। मगर कुछ बस था न क़ाबू।

मगनदास की हृदयवेदी दृष्टि को इसमें तो कोई संदेह नहीं था कि उसके प्रेम का आकर्षण बिलकुल बेअसर नहीं है वर्ना रम्भा की उन वफ़ा से भरी हुई ख़ातिरदरियों की तुक कैसा बिठाता। वफ़ा ही वह जादू है जो रुप के गर्व का सिर नीचा कर सकता है। मगर प्रेमिका के दिल में बैठने का माद्दा उसमें बहुत कम था। कोई दूसरा मनचला प्रेमी अब तक अपने वशीकरण में कामयाब हो चुका होता लेकिन मगनदास ने दिल आशिक़ का पाया था और ज़बान माशूक़ की।

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