कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
317 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
साल भर गुज़र गया। मगनदास की मुहब्बत और रम्भा के सलीक़े ने मिलकर उस वीरान झोंपड़े को कुंज बाग बना दिया। अब वहाँ गायें थीं, फूलों की क्यारियाँ थीं और कई देहाती ढंग के मोढ़े थे। सुख-सुविधा की अनेक चीजें दिखाई पड़ती थीं।
एक रोज सुबह के वक़्त मगनदास कहीं जाने के लिए तैयार हो रहा था कि एक सम्भ्रान्त व्यक्ति अंग्रेजी पोशाक पहने उसे ढूँढ़ता हुआ आ पहुँचा और उसे देखते ही दौड़कर गले से लिपट गया। मगनदास और वह दोनों एक साथ पढ़ा करते थे। वह अब वकील हो गया था। मगनदास ने भी अब पहचाना और कुछ झेंपता और कुछ झिझकता उससे गले लिपट गया। बड़ी देर तक दोनों दोस्त बातें करते रहे। बातें क्या थीं घटनाओं और संयोगों की एक लम्बी कहानी थी। कई महीने हुए सेठ लगन का छोटा बच्चा चेचक की नज़र हो गया। सेठ जी ने दुख के मारे आत्महत्या कर ली और अब मगनदास सारी जायदाद, कोठी इलाके और मकानों का एकछत्र स्वामी था। सेठानियों में आपसी झगड़े हो रहे थे। कर्मचारियों ने ग़बन को अपना ढंग बना रक्खा था। बड़ी सेठानी उसे बुलाने के लिए खुद आने को तैयार थीं, मगर वकील साहब ने उन्हें रोका था। जब मगनदास ने मुस्काराकर पूँछा—तुम्हें क्योंकर मालूम हुआ कि मैं यहाँ हूँ तो वकील साहब ने फरमाया—महीने भर से तुम्हारी ही टोह में हूँ। सेठ मक्खनलाल ने अता-पता बतलाया। तुम दिल्ली पहुँचे और मैंने अपना महीने भर का बिल पेश किया।
रम्भा अधीर हो रही थी। कि यह कौन है और इनमें क्या बातें हो रही हैं? दस बजते-बजते वकील साहब मगनदास से एक हफ़्ते के अन्दर आने का वादा लेकर विदा हुए उसी वक़्त रम्भा आ पहुँची और पूछने लगी—यह कौन थे। इनका तुमसे क्या काम था?
मगनदास ने जवाब दिया—यमराज का दूत।
रम्भा—क्या असगुन बकते हो!
|