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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगन—नहीं रम्भा, यह असगुन नहीं है, यह सचमुच मेरी मौत का दूत था। मेरी ख़ुशियों के बाग़ को रौंदनेवाला, मेरी हरी-भरी खेती को उजाड़नेवाला, रम्भा मैंने तुम्हारे साथ दग़ा की है, मैंने तुम्हें अपने फरेब के जाल में फँसया है, मुझे माफ़ करो। मुहब्बत ने मुझसे यह सब करवाया। मैं मगनसिंह ठाकुर नहीं हूँ। मैं सेठ लगनदास का बेटा और सेठ मक्खनलाल का दामाद हूँ।

मगनदास को डर था कि रम्भा यह सुनते ही चौंक पड़ेगी और शायद उसे ज़ालिम, दग़ाबाज कहने लगे, मगर उसका ख़्याल ग़लत निकला! रम्भा ने आँखों में आँसू भरकर सिर्फ़ इतना कहा—तो क्या तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे?

मगनदास ने उसे गले लगाकर कहा—हाँ।

रम्भा—क्यों?

मगन—इसलिए कि इन्दिरा बहुत होशियार सुन्दर और धनी है।

रम्भा—मैं तुम्हें न छोडूँगी। कभी इन्दिरा की लौंडी थी, अब उनकी सौत बनूँगी। तुम जितनी मेरी मुहब्बत करोगे उतनी इन्दिरा की तो न करोगे, क्यों?

मगनदास इस भोलेपन पर मतवाला हो गया। मुस्कराकर बोला—अब इन्दिरा तुम्हारी लौंडी बनेगी, मगर सुनता हूँ वह बहुत सुन्दर है। कहीं मैं उसकी सूरत पर लुभा न जाऊँ। मर्दों का हाल तुम नहीं जानतीं, मुझे अपने ही से डर लगता है।

रम्भा ने विश्वासभरी आँखों से देखकर कहा—क्या तुम भी ऐसा करोगे? उँह, जो जी में आये करना, मैं तुम्हें न छोडूँगी। इन्दिरा रानी बने, मै लौंडी हूँगी, क्या इतने पर भी मुझे छोड़ दोगे?

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