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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगनदास सो गया, मगर रम्भा की आँखों में नींद न आई।

सुबह हुई तो मगनदास उठा और रम्भा पुकारने लगी। मगर रम्भा रात ही को अपनी चाची के साथ वहाँ से कहीं चली गयी। मगनदास को उस मकान के दरो-दीवार पर एक हसरत-सी छायी हुई मालूम हुई कि जैसे घर की जान निकल गई हो। वह घबराकर उस कोठरी में गया जहाँ रम्भा रोज चक्की पीसती थी, मगर अफसोस आज चक्की एकदम निश्चल थी। फिर वह कुएँ की तरफ दौड़ा गया लेकिन ऐसा मालूम हुआ कि कुएँ ने उसे निगल जाने के लिए अपना मुँह खोल दिया है। तब वह बच्चों की तरह चीख़ उठा और रोता हुआ फिर उसी झोपड़ी में आया। जहाँ कल रात तक प्रेम का वास था। मगर आह, उस वक़्त वह शोक का घर बना हुआ था। जब ज़रा आँसू थमे तो उसने घर में चारों तरफ़ निगाह दौड़ाई। रम्भा की साड़ी अरगनी पर पड़ी हुई थी। एक पिटारी में वह कंगन रक्खा हुआ था। जो मगनदास ने उसे दिया था। बर्तन सब रक्खे हुए थे, साफ़ और सुथरे। मगनदास सोचने लगा—रम्भा तूने रात को कहा था—मैं तुम्हें छोड़ दूँगीं। क्या तूने वह बात दिल से कही थी? मैंने तो समझा था, तू दिल्लगी कर रही है। नहीं तो तुझे कलेजे में छिपा लेता। मैं तो तेरे लिए सब कुछ छोड़े बैठा था। तेरा प्रेम मेरे लिए सब कुछ था, आह, मैं यों बेचैन हूँ, क्या तू बेचैन नहीं है? हाय तू रो रही है। मुझे यकीन है कि तू अब भी लौट आएगी। फिर सजीव कल्पनाओं का एक जमघट उसके सामने आया—वह नाज़ुक अदाएँ, वह मतवाली आँखें, वह भोली-भाली बातें, वह अपने को भूली हुई-सी मेहरबानियाँ, वह जीवनदायी मुस्कान वह आशिकों जैसी दिलजोइयाँ वह प्रेम का नशा, वह हमेशा खिला रहने वाला चेहरा, वह लचक-लचककर कुएँ से पानी लाना, वह इन्तजार की सूरत, वह मुहब्बत से भरी हुई बेचैनी—यह सब तस्वीरें उसकी निगाहों के सामने हसरतनाक बेताबी के साथ फिरने लगीं। मगनदास ने एक ठण्डी साँस ली और आँसुओं और दर्द की उमड़ती हुई नदी को मर्दाना जब्त से रोककर उठ खड़ा हुआ। नागपुर जाने का पक्का फ़ैसला हो गया। तकिये के नीचे से सन्दूक की कुँजी उठायी तो काग़ज़ का एक टुकड़ा निकल आया यह रम्भा की विदा की चिट्ठी थी—

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