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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगनदास की आँखें डबडबा गयीं, बोला—प्यारी, मैंने फ़ैसलाकर लिया है कि दिल्ली न जाऊँगा यह तो मैं कहने ही न पाया कि सेठ जी का स्वर्गवास हो गया। बच्चा उनसे पहले ही चल बसा था। अफ़सोस सेठ जी के आख़िरी दर्शन भी न कर सका। अपना बाप भी इतनी मुहब्ब्त नहीं कर सकता। उन्होंने मुझे अपना वारिस बनाया है। वकील साहब कहते थे कि सेठानियों में अनबन है। नौकर-चाकर लूट मार रहे हैं। वहाँ का यह हाल है और मेरा दिल वहाँ जाने पर राज़ी नहीं होता। दिल तो यहाँ है वहाँ कौन जाए।

रम्भा ज़रा देर तक सोचती रही, फिर बोली—तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगी। इतने दिन तुम्हारे साथ रही, ज़िन्दगी का सुख लूटा, अब जब तक जिऊँगी इस सुख का ध्यान करती रहूँगी। मगर तुम मुझे भूल तो न जाओगे? साल में एक बार देख लिया करना और इसी झोंपड़े में।

मगनदास ने बहुत रोका मगर आँसू न रुक सके, बोले—रम्भा, यह बातें न करो, कलेजा बैठा जाता है। मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता, इसलिए नहीं कि तुम्हारे ऊपर कोई एहसान है। तुम्हारी ख़ातिर नहीं, अपनी ख़ातिर। वह शान्ति, वह प्रेम, वह आनन्द जो मुझे यहाँ मिलता है और कहीं नहीं मिल सकता। खु़शी के साथ ज़िन्दगी बसर हो, यही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है। मुझे ईश्वर ने यह ख़ुशी यहाँ दे रक्खी है तो मैं उसे क्यों छोड़ूँ? धन-दौलत को मेरा सलाम है मुझे उसकी हवस नहीं है।

रम्भा फिर गम्भीर स्वर में बोली—मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी न बनूँगी। चाहे तुम अभी मुझे न छोड़ो लेकिन थोड़े दिनों में तुम्हारी यह मुहब्बत न रहेगी।

मगनदास को कोड़ा लगा। जोश से बोला—तुम्हारे सिवा इस दिल में अब कोई और जगह नहीं पा सकता।

रात ज़्यादा आ गई थी। अष्टमी का चाँद सोने जा चुका था। दोपहर के कमल की तरह साफ़ आसमन में सितारे खिले हुए थे। किसी खेत के रखवाले की बाँसुरी की आवाज़, जिसे दूरी ने तासीर, सन्नाटे ने सुरीलापन और अँधेरे ने आत्मिकता का आकर्षण दे दिया था, कानों में आ रही थी कि जैसे कोई पवित्र आत्मा नदी के किनारे बैठी हुई पानी की लहरों से या दूसरे किनारे के खामोश और अपनी तरफ़ ख़ीचनेवाले पेड़ों से अपनी ज़िन्दगी की ग़म की कहानी सुना रही है।

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