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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

मनावन

बाबू दयाशंकर उन लोगों में थे जिन्हें उस वक़्त तक सोहबत का मज़ा नहीं मिलता जब तक कि वह प्रेमिका की ज़बान की तेज़ी का मज़ा न उठायें। रूठे हुए को मनाने में उन्हें बड़ा आनन्द मिलता। फिरी हुई निगाहें कभी-कभी मुहब्बत के नशे की मतवाली आँखों से भी ज़्यादा मोहक जान पड़तीं। कभी-कभी प्रेमिका की बेरुखी और तुर्शियाँ जोश और उमंग से भी ज़्यादा आकर्षक लगतीं। झगड़ों में मिलाप से ज़्यादा मज़ा आता। पानी में हलके-हलके झकोले कैसी समाँ दिखा जाते हैं। जब तक दरिया में धीमी-धीमी हलचल न हो सैर का लुत्फ नहीं।

अगर बाबू दयाशंकर को इन दिलचस्पियों के कम मौके मिलते थे तो यह उनका क़सूर न था। गिरिजा स्वभाव से बहुत नेक और गम्भीर थी, तो भी चूंकि उसे अपने पति की रुचि का अनुभव हो चुका था इसलिए वह कभी-कभी अपनी तबियत के खिलाफ़ सिर्फ़ उनकी ख़ातिर से उनसे रूठ जाती थी। मगर यह बे-नींव की दीवार हवा का एक झोंका भी न सम्हाल सकती। उसकी आँखें, उसके होंठ उसका दिल यह बहुरूपिये का खेल ज़्यादा देर तक न चला सकते। आसमान पर घटायें आतीं मगर सावन की नहीं, कुआर की। वह डरती, कहीं ऐसा न हो कि हँसी-हँसी से रोना आ जाय। आपस की बदमज़गी के ख़्याल से उसकी जान निकल जाती थी। मगर इन मौकों पर बाबू साहब को जैसी-जैसी रिझाने वाली बातें सूझतीं वह काश विद्यार्थी जीवन में सूझी होतीं तो वह कई साल तक कानून से सिर मारने के बाद भी मामूली क्लर्क न रहते।

दयाशंकर को क़ौमी जलसों से बहुत दिलचस्पी थी। इस दिलचस्पी की बुनियाद उसी ज़माने में पड़ी जब वह कानून की दरगाह के मुजाविर थे और वह अब तक कायम थी। रुपयों की थैली गायब हो गई थी मगर कंधों में दर्द मौजूद था। इस साल कांफ्रेंस का जलसा सतारा में होने वाला था। नियत तारीख़ से एक रोज पहले बाबू साहब सतारा को रवाना हुए। सफ़र की तैयारियों में इतने व्यस्त थे कि गिरिजा से बातचीत करने की भी फुर्सत न मिली थी। आनेवाली खुशियों की उम्मीद उस क्षणिक वियोग के ख़याल के ऊपर भारी थी।

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