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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


कैसा शहर होगा! बड़ी तारीफ सुनते हैं। दकन सौन्दर्य और संपदा की खान है। ख़ूब सैर रहेगी। हज़रत तो इन दिल को खुश करनेवाले ख़यालों में मस्त थे और गिरिजा आँखों में आँसू भरे अपने दरवाज़े पर खड़ी यह कैफियत देख रही थी और ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि इन्हें खैरियत से लाना। वह खुद एक हफ़्ता कैसे काटेगी, यह ख़्याल बहुत ही कष्ट देनेवाला था।

गिरिजा इन विचारों में व्यस्त थी और दयाशंकर सफर की तैयारियों में। यहाँ तक कि सब तैयारियाँ पूरी हो गईं। इक्का दरवाजे पर आ गया। बिस्तर और ट्रंक उस पर रख दिये और तब विदाई भेंट की बातें होने लगीं। दयाशंकर गिरिजा के सामने आए और मुस्कराकर बोले—अब जाता हूँ।

गिरिजा के कलेजे में एक बर्छी-सी लगी। बरबस जी चाहा कि उनके सीने से लिपटकर रोऊँ। आँसुओं की एक बाढ़-सी आँखों में आती हुई मालूम हुई मगर जब्त करके बोली—जाने को कैसे कहूँ, क्या वक़्त आ गया?

दयाशंकर—हाँ, बल्कि देर हो रही है।

गिरिजा—मंगल को शाम की गाड़ी से आओगे न?

दयाशंकर—जरूर, किसी तरह नहीं रुक सकता। तुम सिर्फ़ उसी दिन मेरा इंतज़ार करना।

गिरिजा—ऐसा न हो भूल जाओ। सतारा बहुत अच्छा शहर है।

दयाशंकर—(हँसकर) वह स्वर्ग ही क्यों न हो, मंगल को यहाँ जरूर आ जाऊँगा। दिल बराबर यहीं रहेगा। तुम ज़रा भी न घबराना।

यह कहकर गिरिजा को गले लगा लिया और मुस्कराते हुए बाहर निकल आए। इक्का रवाना हो गया। गिरिजा पलँग पर बैठ गई और ख़ूब रोयी। मगर इस वियोग के दुख, आँसुओं की बाढ़, अकेलेपन के दर्द और तरह-तरह के भावों की भीड़ के साथ एक और ख़्याल दिल में बैठा हुआ था जिसे वह बार-बार हटाने की कोशिश करती थी—क्या इनके पहलू में दिल नहीं है! या है तो उस पर उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है? वह मुस्कराहट जो विदा होते वक़्त दयाशंकर के चेहरे पर लग रही थी, गिरिजा की समझ में नहीं आती थी।

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