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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


सतारा में बड़ी धूमधाम थी। दयाशंकर गाड़ी से उतरे तो वर्दीपोश वालंटियरों ने उनका स्वागात किया। एक फिटन उनके लिए तैयार खड़ी थी। उस पर बैठकर वह कांफ्रेंस पंडाल की तरफ़ चले दोनों तरफ़ झंडियाँ लहरा रही थीं। दरवाजे पर बन्दनवारें लटक रही थीं। औरतें अपने झरोखों से और मर्द बरामदों में खड़े हो-होकर खुशी से तालियाँ बाजते थे। इस शान-शौकत के साथ वह पंडाल में पहुँचे और एक ख़ूबसूरत खेमे में उतरे। यहाँ सब तरह की सुविधाएँ एकत्र थीं, दस बजे कांफ्रेंस शुरू हुई। वक्ता अपनी-अपनी भाषा के जलवे दिखाने लगे। किसी के हँसी-दिल्लगी से भरे हुए चुटकुलों पर वाह-वाह की धूम मच गई, किसी की आग बरसानेवाले तकरीर ने दिलों में जोश की एक लहर-सी पैदा कर दी। विद्वत्तापूर्ण भाषणों के मुकाबले में हँसी-दिल्लगी और बात कहने की खूबी को लोगों ने ज़्यादा पसन्द किया। श्रोताओं को उन भाषणों में थियेटर के गीतों का-सा आनन्द आता था।

कई दिन तक यही हालत रही और भाषणों की दृष्टि से कांफ्रेंस को शानदार कामयाबी हासिल हुई। आख़िरकार मंगल का दिन आया। बाबू साहब वापसी की तैयारियाँ करने लगे। मगर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि आज उन्हें मजबूरन ठहरना पड़ा। बम्बई और यू.पी. के डेलीगेटों में एक हाकी मैच की ठहर गई। बाबू दयाशंकर हाकी के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। वह भी टीम में दाख़िल कर लिये गये थे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि अपना गला छुड़ा लूँ मगर दोस्तों ने इनकी आनाकानी पर बिलकुल ध्यान न दिया। एक साहब, जो ज़्यादा बेतकल्लुफ़ थे, बोले—आख़िर तुम्हें इतनी जल्दी क्यों हैं? तुम्हारा दफ़्तर अभी हफ़्ता भर बंद है। बीवी साहबा की नाराज़गी के सिवा मुझे इस जल्दबाज़ी का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता। दयाशंकर ने जब देखा कि जल्द ही मुझपर बीवी का गुलाम होने की फबतियाँ कसी जाने वाली हैं, जिससे ज़्यादा अपमानजनक बात मर्द की शान में कोई दूसरी नहीं कही जा सकती, तो उन्होंने बचाव की कोई सूरत न देखकर वापसी मुल्तवी कर दी। और हाकी में शरीक हो गए। मगर दिल में यह पक्का इरादा कर लिया कि शाम की गाड़ी से जरूर चले जायेंगे, फिर चाहे कोई बीवी का गुलाम नहीं, बीवी के गुलाम का बाप कहे, एक न मानेंगे।

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