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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


ग़रज इस नयी अहलमदिन और गिरिजा में कुछ बहनापा-सा हो गया था, कभी-कभी उससे मिलने आ जाया करती थी। अपने भाग्य पर सन्तोष करने वाली स्त्री थी, कभी शिकायत या रंज की एक बात ज़बान से न निकालती। एक बार गिरिजा ने मज़ाक में कहा था कि बूढ़े और ज़वान का मेल अच्छा नहीं होता। इस पर वह नाराज़ हो गयी और कई दिन तक न आयी। गिरिजा महरी को देखते ही फौरन आँगन में निकल आयी और गो उस इस वक़्त मेहमान का आना नागवार गुज़रा मगर महरी से बोली—बहन, अच्छी आयीं, दो घड़ी दिल बहलेगा।

जरा देर में अहलमदिन साहब गहने से लदी हुई, घूंघट निकाले, छमछम करती हुई आँगन में आकर खड़ी हो गईं। गिरिजा ने क़रीब आकर कहा—वाह सखी, आज तो तुम दुलहिन बनी हो। मुझसे पर्दा करने लगी हो क्या? यह कहकर उसने घूंघट हटा दिया और सखी का मुँह देखते ही चौंककर एक क़दम पीछे हट गई। दयाशंकर ने ज़ोर से क़हक़हा लगाया और गिरिजा को सीने से लिपटा लिया और विनती के स्वर में बोले-गिरिजन, अब मान जाओ, ऐसी खता फिर कभी न होगी। मगर गिरिजन अलग हट गई और रुखाई से बोली—तुम्हारा बहुरूप बहुत देख चुकी, अब तुम्हारा असली रूप देखना चाहती हूँ।

दयाशंकर प्रेम-नदी की हलकी-हलकी लहरों का आनन्द तो जरूर उठाना चाहते थे मगर तूफ़ान से उनकी तबियत भी उतना ही घबराती थी जितना गिरिजा की, बल्कि शायद उससे भी ज़्यादा। हृदय-परिवर्तन के जितने मंत्र उन्हें याद थे वह सब उन्होंने पढ़े और उन्हें कारगर न होते देखकर आख़िर उनकी तबियत को भी उलझन होने लगी। यह वे मानते थे कि बेशक मुझसे ख़ता हुई है मगर ख़ता उनके ख़याल में ऐसी दिल जलाने वाली सज़ाओं के क़ाबिल न थी। मनाने की कला में वह जरूर सिद्धहस्त थे मगर इस मौके पर उनकी अक्ल ने कुछ काम न दिया। उन्हें ऐसा कोई जादू नजर नहीं आता था जो उठती हुई काली घटाओं और जोर पकड़ते हुए झोंकों को रोक दे। कुछ देर तक वह उन्हीं ख्यालों में खामोश खड़े रहे और फिर बोले—आख़िर गिरिजन, अब तुम क्या चाहती हो।

गिरिजा ने अत्यन्त सहानुभूति शून्य बेपरवाही से मुँह फेरकर कहा—कुछ नहीं।

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