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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

सिर्फ़ एक आवाज़

सुबह का वक़्त था। ठाकुर दर्शनसिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगाजी जाते थे इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में लगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुर्ता टाँक रही थी, दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिए सोचती थी, कि कैसे इसकी मरम्मत करूँ। दोनों लड़कियाँ नाश्ता तैयार करने में तल्लीन थीं। जो ज़्यादा दिलचस्प काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनुसार एक कुहराम मचा रक्खा था क्योंकि हर एक आने-जाने के मौक़े पर उनका रोने का जोश उमंग पर होता था। जाने के वक़्त साथ जाने के लिए रोते, आने के वक़्त इसलिए रोते कि शीरीनी का बाँट-बखरा मनोनुकूल नहीं हुआ। बूढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थीं और बीच-बीच में अपनी बहुओं को समझाती थीं—देखो ख़बरदार! जब तक उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न निकलना। हँसिया, छुरी, कुल्हाड़ी, इन्हें हाथ से मत छूना। समझाये देती हूँ, मानना चाहे न मानना। तुम्हें मेरी बात की कौन परवाह है। मुँह में पानी की बूँद न पड़ें। नारायण के घर विपत पड़ी है। जो साधु-भिखारी दरवाज़े पर आ जाय उसे फेरना मत। बहुओं ने सुना और नहीं सुना। वे मना रही थीं कि किसी तरह यह यहाँ से टलें। फागुन का महीना है, गाने को तरस गये। आज ख़ूब गाना-बजाना होगा।

ठाकुर साहब थे तो बूढ़े, लेकिन बुढ़ापे का असर दिल तक नहीं पहुँचा था। उन्हें इस बात का गर्व था कि कोई ग्रहण गंगा-स्नान के बगैर नहीं छूटा। उनका ज्ञान आश्चर्यजनक था। सिर्फ़ पत्रों को देखकर महीनों पहले सूर्य-ग्रहण और दूसरे पर्वों के दिन बता देते थे। इसलिए गाँववालों की निगाह में उनकी इज्ज़त अगर पण्डितों से ज़्यादा न थी तो कम भी न थी। जवानी में कुछ दिनों फ़ौज में नौकरी भी की थी। उसकी गर्मी अब तक बाक़ी थी, मज़ाल न थी कि कोई उनकी तरफ़ सीधी आँख से देख सके। सम्मन लानेवाले एक चपरासी को ऐसी व्यावहारिक चेतावनी दी थी जिसका उदाहरण आस-पास के दस-पाँच गाँव में भी नहीं मिल सकता। हिम्मत और हौसले के कामों में अब भी आगे-आगे रहते थे किसी काम को मुश्किल बता देना, उनकी हिम्मत को प्रेरित कर देना था। जहाँ सबकी ज़बानें बन्द हो जाएँ, वहाँ वे शेरों की तरह गरजते थे। जब कभी गाँव में दारोग़ा जी तशरीफ लाते तो ठाकुर साहब ही का दिल-गुर्दा था कि उनसे आँखें मिलाकर आमने-सामने बात कर सकें। ज्ञान की बातों को लेकर छिड़नेवाली बहसों के मैदान में भी उनके कारनामे कुछ कम शानदार न थे। झगड़ा पण्डित हमेशा उनसे मुँह छिपाया करते। ग़रज, ठाकुर साहब का स्वभावगत गर्व और आत्म-विश्वास उन्हें हर बरात में दूल्हा बनने पर मजबूर कर देता था। हाँ, कमजोरी इतनी थी कि अपना आल्हा भी आप ही गा लेते और मजे ले-लेकर क्योंकि रचना को रचनाकार ही ख़ूब बयान करता है!

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