कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
317 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
जब दोपहर होते-होते ठाकुर और ठाकुराइन गाँव से चले तो सैंकड़ों आदमी उनके साथ थे और पक्की सड़क पर पहुँचे, तो यात्रियों का ऐसा ताँता लगा हुआ था कि जैसे कोई बाजार है। ऐसे-ऐसे बूढ़े लाठियाँ टेकते या डोलियों पर सवार चले जाते थे जिन्हें तकलीफ़ देने की यमराज ने भी कोई जरूरत न समझी थी। अन्धे दूसरों की लकड़ी के सहारे क़दम बढ़ाये आते थे। कुछ आदमियों ने अपनी बूढ़ी माताओं को पीठ पर लाद लिया था। किसी के सर पर कपड़ों की पोटली, किसी के कन्धे पर लोटा-डोर, किसी के कन्धे पर काँवर। कितने ही आदमियों ने पैरों पर चीथड़े लपेट लिये थे, जूते कहाँ से लायें। मगर धार्मिक उत्साह का यह वरदान था कि मन किसी का मैला न था। सबके चेहरे खिले हुए, हँसते-हँसते बातें करते चले जा रहे थे। कुछ औरतें गा रही थी—
एक दिना उनहूँ पर बनती
हम जानी हमहीं पर बनती
ऐसा मालूम होता था, यह आदमियों की एक नदी थी, जो सैंकड़ों छोटे-छोटे नालों और धारों को लेती हुई समुद्र से मिलने के लिए जा रही थी। जब यह लोग गंगा के किनारे पहुँचे तो तीसरे पहर का वक़्त था लेकिन मीलों तक कहीं तिल रखने की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से दिलों पर ऐसा रोब और भक्ति का ऐसा भाव छा जाता था कि बरबस ‘गंगा माता की जय’ की सदायें बुलन्द हो जाती थीं। लोगों के विश्वास उसी नदी की तरह उमड़े हुए थे और वह नदी! वह लहराता हुआ नीला मैदान! वह प्यासों की प्यास बुझानेवाली! वह निराशों की आशा! वह वरदानों की देवी! वह पवित्रता का स्रोत! वह मुट्ठी भर खाक को आश्रय देनेवाली गंगा हँसती-मुस्कराती थी और उछलती थी। क्या इसलिए कि आज वह अपनी चौतरफा इज्ज़त पर फूली न समाती थी या इसलिए कि वह उछल-उछलकर अपने प्रेमियों के गले मिलना चाहती थी जो उसके दर्शनों के लिए मंजिलें तय करके आये थे! और उसके परिधान की प्रशंसा किस जबान से हो, जिस पर सूरज ने चमकते हुए तारे टाँके थे और जिसके किनारों को उसकी किरणों ने रंग-बिरंगे, सुन्दर और गतिशील फूलों से सजाया था।
|