कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
317 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
मेरे प्यारे दोस्तो,
यह हमारा और आपका कर्तव्य है। इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण, ज़्यादा परिणामदायक और कौम के लिए ज़्यादा शुभ और कोई कर्तव्य नहीं है। हम मानते हैं कि उनके आचार-व्यवहार की दशा अत्यंत करुण है। मगर विश्वास मानिये यह सब हमारी करनी है। उनकी इस लज्जाजनक सांस्कृतिक स्थिति का जिम्मेदार हमारे सिवा और कौन हो सकता है? अब इसके सिवा और कोई इलाज नहीं हैं कि हम उस घृणा और उपेक्षा को; जो उनकी तरफ़ से हमारे दिलों में बैठी हुई है, धोयें और ख़ूब मलकर धोयें। यह आसान काम नहीं है। जो कालिख कई हज़ार वर्षों से जमी हुई है, वह आसानी से नहीं मिट सकती। जिन लोगों की छाया से हम बचते आये हैं, जिन्हें हमने जानवरों से भी जलील समझ रक्खा है, उनसे गले मिलने में हमको त्याग और साहस और परमार्थ से काम लेना पड़ेगा। उस त्याग से जो कृष्ण में था, उस हिम्मत से जो राम में थी, उस परमार्थ से जो चैतन्य और गोविन्द में था। मैं यह नहीं कहता कि आप आज ही उनसे शादी के रिश्ते जोड़ें या उनके साथ बैठकर खायें-पियें। मगर क्या यह भी मुमकिन नहीं है कि आप उनके साथ सामान्य सहानुभूति, सामान्य मनुष्यता, सामान्य सदाचार से पेश आयें? क्या यह सचमुच असम्भव बात है? आपने कभी ईसाई मिशनरियों को देखा है? आह, जब मैं एक उच्चकोटि का सुन्दर, सुकुमार, गौरवर्ण लेडी को अपनी गोद में एक काला-कलूटा बच्चा लिये हुए देखता हूँ जिसके बदन पर फोड़े हैं, ख़ून है और गन्दगी है—वह सुन्दरी उस बच्चे को चूमती है, प्यार करती है, छाती से लगाती है—तो मेरा जी चाहता है उस देवी के क़दमों पर सिर रख दूँ। अपनी नीचता, अपना कमीनापन, अपनी झूठी बड़ाई, अपने हृदय की संकीर्णता मुझे कभी इतनी सफ़ाई से नज़र नहीं आती। इन देवियों के लिए ज़िन्दगी में क्या-क्या संपदाएँ नहीं थीं, खुशियाँ बाँहें पसारे हुए उनके इन्तज़ार में खड़ी थीं। उनके लिए दौलत की सब सुख-सुविधाएँ थीं। प्रेम के आकर्षण थे। अपने आत्मीय और स्वजनों की सहानुभूतियाँ थीं और अपनी प्यारी मातृभूमि का आकर्षण था। लेकिन इन देवियों ने उन तमाम नेमतों, उन सब सांसारिक संपदाओं को सेवा, सच्ची निःस्वार्थ सेवा पर बलिदान कर दिया है! वे ऐसी बड़ी कुर्बानियाँ कर सकती हैं, तो हम क्या इतना भी नहीं कर सकते कि अपने अछूत भाइयों से हमदर्दी का सलूक कर सकें? क्या हम सचमुच ऐसे पस्त-हिम्मत, ऐसे बोदे, ऐसे बेरहम हैं? इसे ख़ूब समझ लीजिए कि आप उनके साथ कोई रियायत, कोई मेहरबानी नहीं कर रहें हैं। यह उन पर कोई एहसान नहीं है। यह आप ही के लिए ज़िन्दगी और मौत का सवाल है। इसलिए मेरे भाइयों और दोस्तों, आइये इस मौके पर शाम के वक़्त पवित्र गंगा नदी के किनारे काशी के पवित्र स्थान में हम मज़बूत दिल से प्रतिज्ञा करें कि आज से हम अछूतों के साथ भाई-चारे का सलूक करेंगे, उनके तीज-त्योहारों में शरीक होंगे और अपने त्योहारों में उन्हें बुलायेंगे। उनके गले मिलेंगे और उन्हें अपने गले लगायेंगे! उनकी खुशियों में खुश और उनके दर्दों में दर्दमन्द होंगे, और चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय, चाहे तानों-तिश्नों और जिल्लत का सामना ही क्यों न करना पड़े, हम इस प्रतिज्ञा पर क़ायम रहेंगे। आप में सैंकड़ों जोशीले नौजवान हैं जो बात के धनी और इरादे के मज़बूत हैं। कौन यह प्रतिज्ञा करता है? कौन अपने नैतिक साहस का परिचय देता है? वह अपनी जगह पर खड़ा हो जाय और ललकारकर कहे कि मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक इस पर दृढ़ता से कायम रहूँगा।
सूरज गंगा की गोद में जा बैठा था और माँ प्रेम और गर्व से मतवाली जोश में उमड़ी हुई, रंग में केसर को शर्माती और चमक में सोने को लजाती थी। चारों तरफ़ एक रोबीली खामोशी छायी थी। उस सन्नाटे में संन्यासी की गर्मी और जोश से भरी हुई बातें गंगा की लहरों और गगनचुम्बी मंदिरों में समा गयीं। गंगा एक गम्भीर माँ की निराशा के साथ हँसी और देवताओं ने अफसोस से सिर झुका लिया, मगर मुँह से कुछ न बोले।
|