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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


संन्यासी की जोशीली पुकार फ़िज़ा में जाकर ग़ायब हो गई, मगर उस मजमे में किसी आदमी के दिल तक न पहुँची। वहाँ क़ौम पर जान देने वालों की कमी न थी; स्टेजों पर क़ौमी तमाशे खेलनेवाले कालेजों के होनहार नौजवान, क़ौम के नाम पर मिटनेवाले पत्रकार, क़ौमी संस्थाओं के मेम्बर, सेक्रेटरी और प्रेसिडेण्ट, राम और कृष्ण के सामने सिर झुकानेवाले सेठ और साहूकार, क़ौमी कालिजों के ऊँचे हौंसलोंवाले प्रोफ़ेसर और अख़बारों में क़ौमी तरक्कियों की खबरें पढ़कर खुश होने वाले दफ्तरों के कर्मचारी हज़ारों की तादाद में मौजूद थे। आँखों पर सुनहरी ऐनकें लगाये, मोटे-मोटे वकीलों की एक पूरी फ़ौज जमा थी मगर संन्यासी के उस गर्म भाषण से एक दिल भी न पिघला क्योंकि वह पत्थर के दिल थे जिसमें दर्द और घुलावट न थी, जिनमें सदिच्छा थी मगर कार्य-शक्ति न थी, जिनमें बच्चों की-सी इच्छा थी मगर मर्दों का-सा इरादा न था।

सारी मजलिस पर सन्नाटा छाया हुआ था। हर आदमी सिर झुकाये फ़िक्र में डूबा हुआ नज़र आता था। शर्मिंदगी किसी को सर उठाने न देती थी और आँखें झेंप के मारे जमीन में गड़ी हुई थीं। यह वही सर हैं जो क़ौमी चर्चों पर उछल पड़ते थे, यह वही आँखें हैं जो किसी वक़्त राष्ट्रीय गौरव की लाली से भर जाती थीं। मगर कथनी और करनी में आदि और अन्त का अन्तर है। एक व्यक्ति को भी खड़े होने का साहस न हुआ। क़ैंची की तरह चलनेवाली ज़बान भी ऐसे महान् उत्तरदायित्व के भय से बन्द हो गयीं।

ठाकुर दर्शनसिंह अपनी जगह पर बैठे हुए इस दृश्य को बहुत ग़ौर और दिलचस्पी से देख रहे थे। वह अपने धार्मिक विश्वासों में चाहे कट्टर हो या न हों, लेकिन सांस्कृतिक मामलों में वे कभी अगुवाई करने के दोषी नहीं हुए थे। इस पेचीदा और डरावने रास्ते में उन्हें अपनी बुद्धि और विवेक पर भरोसा नहीं होता था। यहाँ तर्क और युक्ति को भी उनसे हार माननी पड़ती थी। इस मैदान में वह अपने घर की स्त्रियों की इच्छा पूरी करना ही अपना कर्त्तव्य समझते थे और चाहे उन्हें खुद किसी मामले में कुछ एतराज़ भी हो लेकिन यह औरतों का मामला था और इसमें वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे क्योंकि इससे परिवार की व्यवस्था में हलचल और गड़बड़ी पैदा हो जाने की ज़बरदस्त आशंका रहती थी। अगर किसी वक़्त उनके कुछ जोशीले नौजवान दोस्त इस कमज़ोरी पर उन्हें आड़े हाथों लेते तो वे बड़ी बुद्धिमत्ता से कहा करते थे—भई, यह औरतों के मामले हैं, उनका जैसा दिल चाहता है, करती हैं, मैं बोलनेवाला कौन हूँ। ग़रज यहाँ उनकी फ़ौजी गर्म-मिज़ाजी उनका साथ छोड़ देती थी। यह उनके लिए तिलिस्म की घाटी थी जहाँ होश-हवास बिगड़ जाते थे और अन्धे अनुकरण का पैर बँधी हुई गर्दन पर सवार हो जाता था।

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