कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
लेकिन यह ललकार सुनकर वे अपने को क़ाबू में न रख सके। यही वह मौक़ा था जब उनकी हिम्मतें आसमान पर जा पहुँचती थीं। जिस बीड़े को कोई न उठाये उसे उठाना उनका काम था। वर्जनाओं से उनको आत्मिक प्रेम था। ऐसे मौक़े पर वे नतीजे और मसलहत से बग़ावत कर जाते थे और उनके इस हौसले में यश के लोभ को उतना दखल नहीं था जितना उनके नैसर्गिक स्वाभाव को। वर्ना यह असम्भव था कि एक ऐसे जलसे में जहाँ ज्ञान और सभ्यता की धूमधाम थी, जहाँ सोने की ऐनकों से रोशनी और तरह-तरह के परिधानों से दीप्त चिन्तन की किरणें निकल रही थीं, जहाँ कपड़े-लत्ते की नफ़ासत से रोब और मोटापे से प्रतिष्ठा की झलक आती थी, वहाँ एक देहाती किसान को ज़बान खोलने का हौसला होता। ठाकुर ने इस दृश्य को ग़ौर और दिलचस्पी से देखा। उसके पहलू में गुदगुदी-सी हुई। ज़िन्दादिली का जोश रगों में दौड़ा। वह अपनी जगह से उठा और मर्दाना लहजे में ललकारकर बोला—मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक उस पर क़ायम रहूँगा।
इतना सुनना था कि दो हज़ार आँखें अचम्भे से उसकी तरफ़ ताकने लगीं। सुभानअल्लाह, क्या हुलिया थी—गाढ़े की ढीली मिर्ज़ई, घुटनों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक भारी-सा उलझा हुआ साफ़ा, कन्धे पर चुनौटी और तम्बाकू का वज़नी बटुआ, मगर चेहरे से गम्भीरता और दृढ़ता स्पष्ट थी। गर्व आँखों के तंग घेरे से बाहर निकला पड़ता था। उसके दिल में अब इस शानदार मजमे की इज्जत बाक़ी न रही थी। वह पुराने वक्तों का आदमी था जो अगर पत्थर को पूजता था तो उसी पत्थर से डरता भी था, जिसके लिए एकादशी का व्रत केवल स्वास्थ्य-रक्षा की एक युक्ति और गंगा केवल स्वास्थ्यप्रद पानी की एक धारा न थी। उसके विश्वासों में जागृति न हो लेकिन दुविधा नहीं थी। यानी कि उसकी कथनी और करनी में अन्तर न था और उसकी बुनियाद कुछ अनुकरण और देखादेखी पर थी मगर अधिकांशतः भय पर, जो ज्ञान के आलोक के बाद वृतियों के संस्कार की सबसे बड़ी शक्ति है। गेरुए बाने का आदर और भक्ति करना इसके धर्म और विश्वास का एक अंग था। संन्यास में उसकी आत्मा को अपना अनुचर बनाने की एक सजीव शक्ति छिपी हुई थी और उस ताक़त ने अपना असर दिखाया। लेकिन मजमे की इस हैरत ने बहुत जल्द मज़ाक की सूरत अख़्तियार की। मतलब भरी निगाहें आपस में कहने लगीं—आख़िर गँवार ही तो ठहरा! देहाती है, ऐसे भाषण कभी काहे को सुने होंगे, बस उबल पड़ा। उथले गड्ढे में इतना पानी भी न समा सका! कौन नहीं जानता कि ऐसे भाषणों का उद्देश्य मनोरंजन होता है! दस आदमी आये, इकट्ठे बैठ, कुछ सुना, कुछ गप-शप मारी और अपने-अपने घर लौटे, न यह कि क़ौल-क़रार करने बैठे, अमल करने के लिए क़समें खाये!
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