कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
बीस साल गुज़र गए। पण्डित चिन्तामणि का कारोबार रोज ब रोज बढ़ता गया। इस बीच में उसकी माँ ने सातों यात्राएँ कीं और मरीं तो ठाकुरद्वारा तैयार हुआ। रेवती बहू से सास बनी, लेन-देन, बही-खाता हीरामणि के हाथ में आया। हीरामणि अब एक हृष्ट-पुष्ट लम्बा-तड़ंगा नौजवान था—बहुत अच्छे स्वभाव का, नेक। कभी-कभी बाप से छिपाकर ग़रीब असामियों को यों ही क़र्ज दे दिया करता। चिन्तामणि ने कई बार इस अपराध के लिए बेटे को आँखें दिखाई थीं और अलग कर देने की धमकी दी थी। हीरामणि ने एक बार एक संस्कृत पाठशाला के लिए पचास रुपया चन्दा दिया। पण्डित जी उस पर ऐसे क्रुद्ध हुए कि दो दिन तक खाना नहीं खाया। ऐसे अप्रिय प्रसंग आये दिन होते रहते थे, इन्हीं कारणों से हीरामणि की तबीयत बाप से कुछ खिंची रहती थी। मगर उसकी यह सारी शरारतें हमेशा रेवती की साजिश से हुआ करती थीं। जब कस्बे की ग़रीब विधवायें या जमींदार के सताये हुए असामियों की औरतें रेवती के पास आकर हीरामणि को आंचल फैला-फैलाकर दुआएँ देने लगतीं तो उसे ऐसा मालूम होता कि मुझसे ज़्यादा भाग्यवान और मेरे बेटे से ज़्यादा नेक आदमी दुनिया में कोई न होगा। तब उसे बरबस वह दिन याद आ जाता तब हीरामणि कीरत सागर में डूब गया था और उस आदमी की तस्वीर उसकी आँखों के सामने खड़ी हो जाती जिसने उसके लाल को डूबने से बचाया था। उसके दिल की गहराई से दुआ निकलती और ऐसा जी चाहता कि उसे देख पाती तो उसके पाँव पर गिर पड़ती। उसे अब पक्का विश्वास हो गया था कि वह मनुष्य न था बल्कि कोई देवता था। वह अब उसी खटोले पर बैठी हुई, जिस पर उसकी सास बैठती थी, अपने दोनों पोतों को खिलाया करती थी।
आज हीरामणि की सत्ताईसवीं सालगिरह थी। रेवती के लिए यह दिन साल भर के दिनों में सबसे अधिक शुभ था। आज उसका दया का हाथ ख़ूब उदारता दिखलाता था और यही एक अनुचित खर्च था जिसमें पण्डित चिन्तामणि भी शरीक हो जाते थे। आज के दिन वह बहुत खुश होती और बहुत रोती और आज अपने गुमनाम भलाई करनेवाले के लिए उसके दिल से जो दुआएँ निकलतीं वह दिल और दिमाग़ की अच्छी से अच्छी भावनाओं में रंगी होती थीं। उसी दिन की बदौलत तो आज मुझे यह दिन और यह सुख देखना नसीब हुआ है!
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