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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


एक दिन हीरामणि ने आकर रेवती से कहा—अम्माँ, श्रीपुर नीलाम पर चढ़ा हुआ है, कहो तो मैं भी दाम लगाऊँ।

रेवती—सोलहों आना है?

हीरामणि—सोलहों आना। अच्छा गाँव है। न बड़ा न छोटा। यहाँ से दस कोस है। बीस हज़ार तक बोली चढ़ चुकी है। सौ-दो सौ में खत्म हो जायगा।

रेवती—अपने दादा से तो पूछो?

हीरामणि—उनके साथ दो घंटे तक माथापच्ची करने की किसे फुरसत है।

हीरामणि अब घर का मालिक हो गया था और चिन्तामणि की एक न चलने पाती। वह ग़रीब अब ऐनक लगाये एक गद्दे पर बैठे अपना वक़्त खाँसने में खर्च करते थे।

दूसरे दिन हीरामणि के नाम पर श्रीपुर ख़त्म हो गया। महाजन से जमींदार हुए। अपने मुनीम और दो चपरासियों को लेकर गाँव की सैर करने चले। श्रीपुरवालों को ख़बर हुई। नये ज़मींदार का पहला आगमन था। घर-घर नज़राने देने की तैयारियाँ होने लगीं। पाँचवें दिन शाम के वक़्त हीरामणि गाँव में दाखिल हुए। दही और चावल का तिलक लगाया गया और तीन सौ असामी पहर रात तक हाथ बाँधे हुए उनकी सेवा में खड़े रहे। सवेरे मुख्तारे आम ने असामियों का परिचय कराना शुरू किया। जो असामी ज़मींदार के सामने आता वह अपनी बिसात के मुताबिक एक या दो रुपये उनके पाँव पर रख देता। दोपहर होते-होते पाँच सौ रुपयों का ढेर लगा हुआ था।

हीरामणि को पहली बार ज़मींदारी का मज़ा मिला, पहली बार धन और बल का नशा महसूस हुआ।

सब नशों से ज़्यादा तेज़, ज़्यादा घातक धन का नशा है। जब असामियों की फेहरिस्त ख़त्म हो गयी तो मुख्तार से बोले—और कोई असामी तो बाक़ी नहीं है?

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