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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैग्डलीन भीगी-भीगी आँखें लिये उठी मगर निराश न हुई थी। इस असफलता ने उसके दिल में प्रेम की आग और भी तेज़ कर दी और गो आज मैज़िनी को स्विटज़रलैंड छोड़े कई साल गुज़रे मगर वफ़ादार मैग्डलीन अभी तक मैज़िनी को नहीं भूली। दिनों के साथ उसकी मुहब्बत और भी गाढ़ी और सच्ची होती जाती है।

मैज़िनी खत पढ़ चुका तो एक लम्बी आह भर कर रफ़ेती से बोला—देखा मैग्डलीन क्या कहती है?

रफ़ेती—उस ग़रीब की जान लेकर दम लोगे!

मैज़िनी फिर ख़याल में डूबा—मैग्डलीन, तू नौजवान है, सुन्दर है, भगवान ने तुझे अकूत दौलत दी है, तू क्यों एक ग़रीब, दुखियारे, कंगाल, फक्कड़, परदेश में मारे-मारे फिरने वाले आदमी के पीछे अपनी ज़िन्दगी मिट्टी में मिला रही है! मुझ जैसा मायूस, आफ़त का मारा हुआ आदमी तुझे क्योंकर खुश रख सकेगा? नहीं, नहीं मैं ऐसा स्वार्थी नहीं हूँ। दुनिया में बहुत से ऐसे हँसमुख खुशहाल नौजवान हैं जो तुझे खुश रख सकते हैं जो तेरी पूजा कर सकते हैं। क्यों तू उनमें से किसी को अपनी गुलामी में नहीं ले लेती! मैं तेरे प्रेम, सच्चे, नेक और निःस्वार्थ प्रेम का आदर करता हूँ। मगर मेरे लिए जिसका दिल देश और जाति पर समर्पित हो चुका है, तू एक प्यारी और हमदर्द बहन के सिवा कुछ और नहीं हो सकती। मुझमें ऐसी क्या खूबी है, ऐसे कौन से गुण हैं कि तुझ जैसी देवी मेरे लिए ऐसी मुसीबतें झेल रही है। आह मैज़िनी कम्बख्त मैज़िनी, तू कहीं का न हुआ। जिनके लिए तूने अपने को न्योछावर कर दिया, वह तेरी सूरत से नफ़रत करते हैं। जो तेरे हमदर्द है, वह समझते हैं तू सपने देख रहा है।

इन ख़यालों से बेबस होकर मैज़िनी ने क़लम-दवात निकाली और मैग्डलीन को ख़त लिखना शुरू किया?

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