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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैग्डलीन—हाय जोजेफ़, तुम मुझसे माफ़ी माँगते हो, ऐं, तुम जो दुनिया के सब इनसानों से ज़्यादा नेक, ज़्यादा सच्चे और ज़्यादा लायक़ हो! मगर हाँ, बेशक, तुमने मुझे बिलकुल न समझा था जोज़ेफ़! यह तुम्हारी ग़लती थी। मुझे ताज्जुब तो यह है कि तुम्हारा ऐसा पत्थर का दिल कैसे हो गया।

जोज़ेफ़—मेगा, ईश्वर जानता है जब मैंने रफ़ेती को यह सब सिखा–पढ़ाकर तुम्हारे पास भेजा था, उस वक़्त मेरे दिल की क्या कैफ़ियत थी। मैं जो दुनिया में नेकनामी को सबसे ज़्यादा क़ीमती समझता हूँ और मैं जिसने दुश्मनों के जाती हमलों को कभी, पूरी तरह काटे बिना न छोड़ा, अपने मुँह से सिखाऊँ कि जाकर मुझे बुरा कहो! मगर यह केवल इसलिए था कि तुम अपने शरीर का ध्यान रक्खो और मुझे भूल जाओ।

सच्चाई यह थी कि मैज़िनी ने मैग्डलीन के प्रेम को रोज़-ब-रोज़ बढ़ते देखकर एक ख़ास हिकमत की थी। उसे खूब मालूम था कि मैग्डलीन के प्रेमियों में से कितने ही ऐसे हैं, जो उससे ज़्यादा सुन्दर, ज़्यादा दौलतमन्द और ज़्यादा अक़्लवाले हैं, मगर वह किसी को ख़याल में नहीं लाती। मुझमें उसके लिए जो ख़ास आकर्षण है, वह मेरे कुछ खास गुण हैं और अगर मेरे ऐसे मित्र, जिनका आदर मैग्डलीन भी करती है, उससे मेरी शिकायत करके इन गुणों का महत्त्व उसके दिल से मिटा दें तो वह खुद-ब-खुद मुझे भूल जायेगी। पहले तो उसके दोस्त इस काम के लिए तैयार न होते थे मगर इस डर से कि कहीं मैग्डलीन ने घुल-घुल कर जान दे दी तो मैज़िनी ज़िन्दगी भर हमें माफ़ न करेगा, उन्होंने यह अप्रिय काम स्वीकार कर लिया था। वह स्विटज़रलैण्ड गये और जहाँ तक उनकी जबान में ताक़त थी, अपने दोस्त की पीठ पीछे बुराई करने में खर्च की। मगर मैग्डलीन पर मुहब्बत का रंग ऐसा गहरा चढ़ा हुआ था, कि इन कोशिशों का इसके सिवाय और कोई नतीजा न हो सकता था जो हुआ। वह एक रोज़ बेक़रार होकर घर से निकल खड़ी हुई और रोम में आकर एक सराय में ठहर गयी। यहाँ उसका रोज़ का नियम था कि मैज़िनी के पीछे-पीछे उसकी निगाह से दूर घूमा करती मगर उसे आश्वस्त और अपनी सफलता से प्रसन्न देखकर उसे छेड़ने का साहस न करती थी। आख़िरकार जब फिर उस पर असफलताओं का वार हुआ और वह फिर दुनिया में बेकस और बेबस हो गया तो मैग्डलीन ने समझा, अब इसको किसी हमदर्द की ज़रूरत है। और पाठक देख चुके हैं जिस तरह वह मैज़िनी से मिली।

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